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________________ २८१ मलम्:-अवश्यं चाभ्युपगन्तव्यं हेतोः प्रति. नियतधर्मिधर्मताप्रतिपत्त्यर्थमुपसंहारवचनवत् साध्यस्यापि तदर्थ पक्षवचनं ताथागतनापि, अन्यथा समर्थनापन्यासादेव गम्यमानस्य हेनोरप्यनुपन्यासप्रसङ्गात् । मन्दमतिप्रतिपत्त्यघस्य चोभयाविशेषादिति । __ अर्थः-जिस प्रकार हेतु प्रतिनियत धर्मी का धर्म है इस वस्तु को प्रकट करने के लिये बौद्ध उपसंहार वाक्य को स्वीकार करता है इस प्रकार साध्य भी नियत धर्मी का धर्म है इस वस्तु को प्रकट करने के लिये बौद्ध को भी पक्ष का प्रयोग स्वीकार करना चाहिये । यदि इस प्रकार न माना जाय तो समर्थन के द्वारा ही हेतु की प्रतीति हो सकती है-अतः हेतु का प्रयोग भी अनावश्यक हो जायगा । यदि कहो-मंद बुद्धियों को समझाने के लिये हेतु का प्रयोग आवश्यक हे तो पक्ष का प्रयोग भी इसी कारण आवश्यक है। विवेचनाः - बौद्ध समस्त भावों को क्षणिक सिद्ध करने के लिये अनुमान वाक्य का प्रयोग इस रीति से करता हैजो सत् है वह क्षणिक है, जिस प्रकार मेघ, और ये भावपदार्थ सत् हैं। इस प्रयोग में भाव सत् है यह वाक्य उपसंहार है । सत्त्य हेतु भावरूप नियत धर्मी का धर्म है इस
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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