SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ यदि बाघकाभावरूप हेतु भाव और अभाव दोनों का धर्म है तो हेतु व्यभिचारी हो जायगा। जो हेतु साध्य सहित और साध्य रहित अर्थ में रहना है वह नियतरूप से साध्य को नहीं सिद्ध कर सकता । अनेकान्तिक हेतु से अर्थ की सत्ता नहीं सिद्ध हो सकती । यदि कोई प्रोति होती है इसलिये यह सोना है इस प्रकार अनुमान करे तो इस हेत से सोने का सत्त्व नहीं सिद्ध होता । वृक्ष आदि विद्यमान हैं और उनकी प्रतीति होती है । मरुस्थल में जल नहीं है. तो भी प्रीष्म ऋतु में वहां जल प्रतीत होता है । अनकान्तिक होनेके कारण केवल प्रतीति सुवर्ण के मत्व को मिद्ध करने में असमर्थ है । प्रतीति होती है इसलिये वृक्ष आदिके समान जिम प्रकार सवर्ण विद्यमान सिद्ध हो सकता है, इस प्रकार मरुस्थल में जल के समान असत् भो सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार अनेकान्तिक हेतु से सत्त्व और असत्व का सदेह होता है इस प्रकार बाधक प्रमाणों का अभावरूप हेतु यदि भाव और अभाव दोनों का धर्म होगा तो अनेकान्तिक होगा और उसके कारण सर्वज्ञ के विषय में संदेह होगा। बाधक प्रमाणों का अभाव दि भाव और अभाव इन दोनों का धर्म हो तो सर्वज्ञ विद्यमान भो हो सकता है और अविद्यमान भी हो सकता है। यदि यह हेतु अभाव का धर्म हो तो विरुद्ध हो जायगा। इस दशा में यह हेतु किसी भी भाव में नहीं रह सकता । रूप से रहित है इसलिये नेत्र द्वारा देखा जा सकता है। इस प्रयोग में रूप का अभाव हेतु है । यह किसी अर्थ को देखने योग्य नहीं सिद्ध कर सकता । वायु और आकाश आदिमें रूप का अभाव है और उनका चक्षु से प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy