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________________ मलमः-आयऽसिडिः, असिद्धसत्ताके भावधर्मासिद्धः। द्वितीये व्यभिचार, अस्तित्वा भाववत्यपि वृतेः । तृतीये व विरोधाभा (विरो. धोडमा) वधर्मस्य भावे क्वचिदप्यसम्भवात् । अर्थः-जिसकी सत्ता सिद्ध नहीं है उसमें भावरूप धर्मी का धर्म सिद्ध नहीं हो सकता, अतः प्रथम पक्ष में असिद्धि है । सत्त्व के अभाव वाले धर्मी में भी रहता है इसलिये द्वितीय पक्ष में व्यभिचार है । तृतीय पक्ष में विरोध है अभाव का धर्म किसी भी भाव में नहीं रह सकता। विवेचना:-विकल्प के द्वारा वस्तु की सत्ता का निषेध करनेवाला फिर आक्षेप करता है । यदि धर्मी प्रमाण से सिद्ध नहीं, किन्त विकल्प से सिद्ध है तो उसकी सत्ता के साध्य होने पर हेतु में तीन दोष हो जाते हैं । प्रकृत अनुमान में सर्वज्ञ विकल्प द्वारा सिद्घ धर्मो है। सत्त्व साध्य है और बाधक प्रमाणों का अभाव हेत है। यह हेतु यदि भावरूप धर्मों का धर्म हो तो असिद्धि है। सर्वज्ञ को सत्ता इस काल तक सिद्ध नहीं हुई। सत्ता के बिना सर्वज्ञ भावरूप नहीं सिर हो सकता । जो भाव नहीं है उसमें भाव का धर्म 'हेतु' नहीं रह सकता। यदि हेतु भावात्मक धर्मी का धर्म है तो धर्मी को भाव ही होना चाहिये और यदि वह भावरूप सिद्ध है तो उसकी सत्ता को सिद्ध करने के लिये हेतु पर्थ है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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