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________________ मूलम्-इत्थं च 'पक्वान्येतानि सहकारफलानि एकशाखाप्रभवस्वाद उपयुक्तसहकारफलपदित्यादौ षाधितविषये, मोऽयं देवदत्तः तत्पुत्रत्वात् इतरतत्पुत्रवदित्यादी सत्प्रतिपक्ष चातिप्रसङ्गवारणाय अबाधितविषयत्वासप्रतिपक्षम्वसहितं प्रागुक्तरूपत्रयमादाय पाशरूप्यं हेतलक्षणम्, इति नेयायिकमतमप्यपारतम् । - अर्थ-बौद्धोंने हेतु के जो तीन लक्षण कहे हैं उनका निराकरण होनेसे नैयायिकों के मत का भी निराकरण हो जाता है। न्याय मत के अनुसार हेतु में पांच लक्षण होने चाहियें । आम्रवृक्ष के ये फल पके हुए हैं, एक शाखा में उत्पन्न होनेसे, उपयोग में आये हुए अन्य फलों के समान, इत्यादि बाधित विषय में, यह देवदत्त मूर्ख है, उसका पुत्र होनेसे, उसके अन्य पुत्रों के समान, इत्यादि सत्प्रतिपक्ष में; अतिप्रसंग के निवारण के लिये अबाधित विषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व ये दो रूप आवश्यक हैं । पहले कहे हुए तीन रूप इन दोनों के साथ मिलकर पांच रूप हो जाते हैं। विवेचना.-तीनरूप हेतु के लक्षण नहीं हो सकते । बाषित विषय और सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभासों में ये तीनरूप हैं, परन्तु उनसे साध्य की सिद्धि नहीं होती। जिस हेतु का साध्य
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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