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________________ बढा हुआ प्रवाह रूप हेतु वहां नहीं है तो भी अनुमिति होती है । इसलिये पक्षसस्व रूप हेतु का लक्षण युक्त नहीं है। मूलमः-न च वापि 'कालाकाशादिकं भविव्यच्छकटोदयादिमत् कृत्तिकोदयादिमत्त्वात्, इत्येवं पक्षधर्ममोपपत्तिरिति वाच्यम् अननु. भूयम न धर्मिविषयत्वेन थ पक्षधमत्वोपपादने जगवार्यपेक्षा काकाहार्येन प्रासावधावस्य. स्यापि साधनोपपत्तेः। अर्थ:- यहाँ पर यदि कहा जाय काल, आकाश आदि रोहिणी नक्षत्र के भावी उदय से युक्त हैं, कृत्तिका का उदयवाला होने से । इस रीतिसे पक्षधर्मता हो सकती है, तो यह युक्त नहीं है । जिसका अनुभव नहीं होता इस प्रकार के धर्मीकी कल्पना करके यदि इस रीतिसे पक्षधर्मता को सिद्ध किया गया तो जगतरूपधर्मीकी अपेक्षा से काककी कृष्णता के द्वारा प्रासाद की धवलता भी सिद्ध हो जायगी । विवेचना:-भिन्न काल और भिन्न देशमें जहाँ पर साध्य और साधन हैं वहाँ पक्षधर्मता का उपपादन करने के लिये कहते हैं कृत्तिका का जो उदयकाल है और रोहिणी का जो उदय काल है उन दोनों कालोंका व्यापक एक विश ल काल पक्ष है। उस काल में कृत्तिका का उदय है इसलिये यहाँ पर
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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