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________________ १९२ हेत है, उसका व्यापक साध्य है-'वह्नि' उसके साथ एक अधिकरण पर्वत आदि में धूम रहता है। इसलिये साध्य का सामानाधिकरण्य धूम हेतु में है। एक अधिकरण में वृत्तिसामानाधियरण्य पद का अर्थ है। यह लक्षण व्यापकता से घटित है। व्यापकता का लक्षण है-'तद्वन्निष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वम्' यहां 'तत्' पद से हेतु का ग्रहण है। हेतु के अधिकरण में जो अत्यन्ताभाव रहता है उसका जो प्रतियोगी नहीं है वह व्यापक कहा जाता है। धूम हेतु के पर्वत आदि जो अधिकरण हैं। उनमें घट आदि का अत्यन्ताभाव मिलता है उनके प्रतियोगी घट आदि हैं, अप्रतियोगी वह्नि है । धूम के अधिकरण पर्वत आदि में वहिन का अत्यन्ताभाव नहीं मिलता। इसलिये वह्नि धूम के अधिकरण में वर्तमान घटादि के अत्यन्ताभावों का अप्रतियोगा है । अत: वह्निरूप साध्य धूम हेतु का व्यापक है। हेतु के व्यापक साध्य क साथ सामानाधिकरणरूप व्याप्ति लक्षण का स्वरूप इस रोति से होगा। हेतु के व्यापक अर्थात् हेतु के अधिकरण में वर्तमान अत्यन्ता. भाव का अप्रतियोगी जो साध्य है, उस साध्य क साथ एक अधिकरण में वृत्ति-व्याप्ति है। इस लक्षण को अतिव्याप्ति असत् हेतु में नहीं होती। “पर्वत धूमबाला है-वह्नि होने से" यह असत् हेतु का प्रसिद्ध उदाहरण है। इस प्रयोग में धूम साध्य है और अग्नि हेतु है। वह्निरूप हेतु में व्याप्ति का लक्षण नहीं जाता। धुम साध्य अग्निरूप हेतु का व्यापक नहीं है । अग्नि हेतु का अधिकरण तप्त लोह पिण्ड है । उसमें धूम का अत्यन्ताभाव है। उस अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी धूम है। अतः धूम वह्नि का व्यापक नहीं इसलिए व्य प्ति का यह लक्षण वह्विरूप दुष्ट हेतु में नहीं जाता।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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