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________________ मूलम् :-अथ स्वव्यापकसाध्यसामानाधि. करण्यलक्षणाया व्याप्तेयोग्यत्वाद भूयोदर्शनव्यभिचारादर्शनसहकतेनेन्द्रियेण व्याप्तिग्रहोऽस्तु, सकलसाध्यसाधनव्यक्त्युपसंहारस्यापि सामान्य लक्षणप्रत्यासत्या सम्भवादिति चेत् । ___ अर्य:-शंका करते हैं-व्याप्ति का लक्षण 'स्वव्यापकसाध्य समानाधिकरण्य' भी है। अपने व्यापकसाध्य के साथ एक अधिकरण में जो रहना-वह व्याप्ति है। यह व्याप्ति प्रत्यक्ष के योग्य है। अनेकबार का दशन और व्यभिचार का अदर्शन-इन दोनों से युक्त इन्द्रिय व्याप्ति का ज्ञान कर सकती है। समस्त साध्य व्यक्तियों और समस्त साधन व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध का ज्ञान 'सामान्य रूप' प्रत्यासत्ति के द्वारा हो सकता है। विवेचना.-तीन काल के व्यक्तियों के सम्बन्धी पह्नित्व और धूमत्व साध्य और साधन के स्वरूप हैं। इस स्वरूप से प्रयुक्त अव्यभिचाररूप ध्याप्ति प्रत्यक्ष का विषय यदि न हो, तो भी व्याप्ति का दूसरा स्वरूप प्रत्यक्ष हो सकता है। अपने व्यापक साध्य के साथ एक अधिकरण में वृत्ति ध्याप्ति का दूसरा लक्षण है । "पर्वतो वहिनमान् धूमात्" इस स्थान में इस लक्षण का समन्वय इस रीति से होगा। लक्षण के अन्तर्गत 'स्व' पद का अर्थ है-हेतु, प्रकृत प्रयोग में 'धूम'
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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