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________________ १०२ और उत्तरकाल में उसका स्मरण अनिवार्य नहीं है। बाक्यद्वारा गाय और गवय के सादृश्य की प्रतीति हुई थी, अनन्तर गवय में सादृश्य प्रत्यक्ष होता है और उसके द्वारा वाच्यवाचकभाव का ज्ञान होता है। वाच्य-वाचकभाव का ज्ञान भी सादृश्य के बोधक वाक्य द्वारा पूर्वकाल में नहीं हुआ था, उत्तरकाल में जब सादृश्य प्रत्यक्ष होता है, तब शम्द द्वारा अनुभूत वाच्य-वाचक भाव को प्रतीति फिर होती है। यहां पर प्रत्यभिज्ञान में सादृश्य का ज्ञान सहकारी है। सादृश्य ज्ञान रूप सहकारी के कारण वाच्य-वाचकभाष के ज्ञान को यदि प्रत्यभिशाम से भिन्न उपमान प्रमाण माना जाय तो जहाँ मादृश्य के बिना अन्यधर्मों के प्रतिपादन द्वारा वाच्य-वाचकभाव का प्रतिपादन होता है। वहाँ उपमान से भिन्न किसी प्रमाण को मानना पडेगा। वक्ता जब दूष और पानी के भेद करनेवाले को हंस कहता है, तब दूध और पानी के विभागन रूप धर्म को वाच्य-वाचक भाव की प्रतीति में साधनरूप कहता है। दूध और पानी को भिन्न करना सादृश्य नहीं है। यहां पर उपमान संभव नहीं है । प्रसिद्ध अर्थ के साथ सादृश्य का प्रतिपादन यहाँ नहीं है। इसलिए जहां पर सादृश्य आदि धर्मों के प्रतिपादन द्वारा दो ज्ञानों का संकलन होता है, वहां प्रत्यभिज्ञान को ही स्वीकार करना चाहिए। मूलम-यदि व 'अयं गवयपदवाच्यः' इति प्रतीत्यर्थ प्रत्यभिज्ञानातिरिक्तं प्रमाणमाभीयते तदा आमलकादिदर्शनाहितसंस्कारस्य विस्वाविदर्शनात् , 'अतस्तत् सूक्ष्मम्' इत्याविप्रती. त्यर्थ प्रमाणान्तरमन्वेषणीयं स्यात् ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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