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________________ १५६ मैं प्रतीत होते हैं। चित्रज्ञान के समान प्रत्यभिज्ञान में 'वह' और 'यह' इस प्रकार के अस्पष्ट और स्पष्ट आकार प्रतीत होते हैं । दर्शन और स्मरण परस्पर विरोधी होने पर भी एक प्रत्यभिज्ञान के कारण हैं । इन कारणों के साथ प्रत्यभिज्ञान का भेद और अभेद है - सर्वथा भेद नहीं है । जिस प्रकार चित्र ज्ञान एक है और उस में नील पीत आकारों का भेदाभेद है, इस प्रकार एक प्रत्यभिज्ञान का स्पष्ट और अस्पष्ट आकारों के साथ भेदाभेद है । बौद्धों के आक्षेप का इस रीति से उत्तर देने पर प्रत्यभिज्ञान को एक ज्ञान माना जाता है, और स्पष्ट अस्पष्ट दो परस्पर विरोधी आकारों के साथ संबंध भी स्वीकार किया जाता है । वास्तव में तो एक प्रत्यभिज्ञान के स्पष्ट और अस्पष्ट दो श्राकार नहीं हैं। अपनी कारण सामग्री से प्रत्यभिज्ञान अस्पष्ट रूप में ही उत्पन्न होता है । प्रत्यभिज्ञान में इदन्ताका अर्थात् 'यह' का जो उल्लेख है वह प्रत्यभिज्ञान के स्वभाव के कारण है । वह आकार भी प्रत्यभिज्ञान के अस्पष्ट आकार में अन्तर्भूत है । केवल अस्पष्ट आकार बाला होने से प्रत्यभिज्ञान एक ही ज्ञान है । मूलम्:- विषयाभावान्नेदमस्तीति चेत्; न; पूर्वापर विवर्त्तवकद्रव्यस्य विशिष्टस्यैतद्विषयत्वात् । अर्थ :- विषय नहीं हैं, इसलिए प्रत्यभिज्ञान नामक कोई अतिरिक्त ज्ञान नहीं है, यदि आप इस प्रकार कहो तो वह युक्त नहीं | पूर्व और अपर पर्यायों में रहनेवाला विशिष्ट एक द्रव्य इस ज्ञान का विषय है ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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