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________________ १५८ मूलम-तन्न, आकारभेदेऽपि चित्र ज्ञानवेदकस्य तस्यानुभूयमानत्वात् , स्वसामग्रीप्रभवस्यास्य घस्तुतोऽस्पष्टकरूपत्वाच, इदन्तोल्लेखस्य प्रत्यभिज्ञा निवन्धनत्वात्। अर्थः-वह कथन युक्त नहीं है । आकार में भंद होने पर भी जिस प्रकार चित्रज्ञान एक है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान नामक ज्ञान की प्रतीति भी एक रूप में होती है और वास्तव में अपनी सामग्री से उत्पन्न प्रत्यभिज्ञान अस्पष्टरूप एक आकारवाला है । इसमें 'इदम्'-यह का उल्लेख प्रत्यभिज्ञान का कारण है । विवेचना:-भिन्न धमियों में जो विरोधी धर्म प्रतीत होते हैं, वे यदि एक धर्मों में प्रतीत हों तो एक काल में नहीं प्रतीत होते , जल जब शीतल प्रतीत होता है तब उष्ण नहीं प्रतीत होता । जल में प्रवेश करनेवाले, अग्नि के परमाणु जब बाहर निकल जाते हैं, तब जल शीतल प्रतीत होना है। अग्नि सदा उष्ण ही प्रतीत होता है । जो जल पूर्वकाल में उष्ण प्रतीत हुआ था वह पीछे केवल शीत स्पर्श के साथ प्रतीत होता है। एक काल में शीत और उष्ण दोनों स्पर्शों की प्रतीति एक वस्तु में नहीं होती। परन्तु जब एक काल में एक ही वस्तु में विरोधी धर्मों की प्रतीति होती है तब धर्मों में भेद होता है परंतु धर्मो में भेद नहीं होता । एक ही मणि जब चित्ररूपवाली प्रतीत होती है तब नील पीत-रूप में और पीत नीलरूप में प्रतीत नहीं होता, परंतु नील और पीत एक काल में एक ही मणि
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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