SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ अन्यो ध्रुवम्, बह्वादिरूपेणावगतस्य सवदंव , तथा बोधात् । अन्यस्त्वध वम्, कदाचिद्वह्नादि -- कदाचित्वबह्वादिरूपेणावगमादिति । रूपेण '. उता मतिभेदाः । अर्थ- बहु आदि भेद, विषय की अपेक्षा से होते हैं । वह अपेक्षा इस प्रकार से - (१) कोई जीव अनेक शब्दों के समूह को सुनता है उन शब्दों में विशेष प्रकार के क्षयोपशम के कारण पृथक् पृथक् भिन्न जाति के शब्दों को जान लेता है । इस शब्द समूह में शंख के इतने शब्द हैं और ढोल आदि के इतने शब्द हैं इस रीति से जान लेता है । (२) अन्य कोई व्यक्ति अल्प क्षयोपशम होने से उसी स्थान में होने पर भी इस प्रकार नहीं जानता वह किसी एक शब्द को ही जानता है अन्य शब्दों को होने पर भी नहीं जानता । (३) अन्य कोई व्यक्ति क्षयोपशम की विचित्रता से एक एक वीणा आदि के शब्द को स्निग्धता आदि अनेक धर्मों के साथ जानता है । (४) जब कोई स्निग्धता आदि अल्प धर्मो के साथ वीणा आदि के शब्दों को जानता है तब अबहुविध ज्ञान होता है । (५) कोई जल्दी जानता है (६) कोई चिर काल में जानता है । चिर और अचिर काल के कारण क्षिप्र और अक्षिप्र भेद होते हैं । (७) कोई 1
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy