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________________ ८६ का है इस प्रकार चिरकाल का भी है। यदि प्रर्थावग्रह का काल केवल एक समय का हो तो चिर काल का अर्थावग्रह नहीं होना चाहिए। परन्तु शास्त्र चिरकाल वाले अर्थावग्रह को भी कहता है इसलिये अर्थावग्रह के समय का परिमाण असंख्येय भी हो सकता है । इसी प्रकार वीणा शंख आदि के शब्द जब हो रहे हैं तब कोई समस्त प्रकार के शब्दों के समूह को जानता है । कोई पुरुष यह शंख का शब्द है, यह वीणा का शब्द है, इस रीति से अनेक भिन्न शब्दों को जानता है । कोई मनुष्य यह मधुर शब्द है, यह कर्कश है यह तीव्र है, और यह मन्द है, इस रीति से शब्दों को अनेक धर्मों के साथ जानता है । कोई मनुष्य इस प्रकार के अनेक धर्मों के बिना शब्द का अवग्रह करता है । अवग्रह के इन भेदों से प्रतीत होता है, किसी काल में अवग्रह से सामान्य का ग्रहण होता है और किसी काल में अवग्रह से विशेषों का भी ग्रहण होता है । इसलिये अवग्रह में सामान्य और विशेष दोनों का ग्रहण काल भेद से हो सकता है इसमें विरोध नहीं है । "यह शब्द है इस रीति से सूत्र के इस वाक्य के अनुसार भी का प्रतिपादन है, सहज भाव से अर्थ करने पर यह वस्तु स्पष्ट हो जाती है । इस के अनुसार भी अर्थावग्रह और विशेष ज्ञान में विरोध नहीं सिद्ध होता । अवग्रह करता है" नन्दी शब्द रूप विशेष के ज्ञान इसके उत्तर में कहते हैं-जो ज्ञान अनेक अथवा अनेक प्रकार के शब्दों का प्रकाशक है वह विशेष का प्रकाशक होने के कारण निश्चय रूप है । सामान्य अर्थ के ज्ञानरूप अर्थावग्रह और ईहा के बिना निश्चय नहीं हो सकता इसी लिये निश्चय अर्थावग्रह नहीं है। अनेक और अनेक प्रकार के
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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