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________________ है परन्तु उस ग्रहण में मन द्रव्यों के साथ साधर मन का केवल संबध है, ग्राह्य रूप से द्रव्य मनों को साधन मन नहीं ग्रहण करता । मन से जिस प्रकार मेरु आदि को प्रतीति होती है इस प्रकार द्रव्य मनों का ज्ञान-साधन मन नहीं करता । मन द्रव्यों का ग्रहण संयोगरूप है ज्ञानरूप नहीं, इसलिये इस हेतु से मन प्राप्यकारी नहीं सिद्ध होता। मूलम्-सन्निहितहृदयादिदेशग्रहवेलायामपि नैतदवकाशः, वाह्यार्थापेक्षयैव प्राप्यकारिस्वाप्राप्यकारित्वव्यवस्थानात्, ___ अर्थ-समीपवर्ती हृदय आदि का ज्ञान जिस काल में होता है उस काल में भी इस का अवसर नहीं है । कारण, बाह्य अर्थों की अपेक्षा से प्राप्यकारिता और अप्राप्यकारिता की व्यवस्था होती है। विवेचना-मन की स्थिति हृदय में कही जाती है। जिस देश में स्थिति है उस देश के साथ संबंध अपरिहार्य है परन्तु इस संबंध के सामर्थ्य से मन प्राप्यकारी नहीं हो सकता। बाह्य अर्थों के साथ जिन इन्द्रियों का संबंध होता है वे प्राप्यकारी हैं, जिनका संबंध बाह्य अर्थों के साथ नहीं है वे अप्राप्यकारी हैं। ध्यान रखना चाहिये, जो संबंध ज्ञान की उत्पत्ति में सहायक होता है वही संबंध प्राप्यकारिता में निमित्त होता है । जो संबंध ज्ञान को उत्पत्ति में निमित्त नहीं होता, उसके कारण इन्द्रिय प्राप्यकारी नहीं होती। हृदय के साथ मन का संबंध है परन्तु वह संबंध हृदय के ज्ञान में कारण नहीं है । मन अपने स्वाभाविक सामर्थ्य से हृदय को
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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