SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ मन का व्यञ्जनावग्रह आवश्यक है । शरीर से बाहर रहे विषयांके साथ त्वचा आदि का संबंध होता है इसलिये त्वचा आदि प्राप्यकारी हैं। इस रीति से शरीर से बाहर मेरु आदि विषयों के साथ मन का संबंध यदि न हो तो भी शरीर के अन्दर रहे हृदय के साथ संबंध में कोई शंका नहीं हो सकती । विषयों के साथ संबंध के कारण त्वचा आदि इन्द्रिय प्राप्य - कारी हैं । विषय शरीर के बाहर है अथवा अन्दर है यह वस्तु त्वचा आदि इन्द्रियों के प्राप्यकारी होने में कारण नहीं है । हृदय शरीर के अन्दर है उसके विषय में मन ज्ञान करता है । मन के साथ हृदय के संबंध में कोई प्रतिबंधक नहीं है, इसलिये मन त्वचा आदि के समान प्राप्यकारी है । मूलम् - श्रृणु; ग्रहणं हि मनः, न तु ग्राह्यम् । ग्राह्यवस्तुग्रहणे च व्यज्जनावग्रहो भवतीति न मनोद्रव्यग्रहणे तदवकाशः; अर्थ- सुनो, मन ग्रहण है ग्राह्य नहीं । ग्राह्य वस्तु के ग्रहण से व्यञ्जनावग्रह होता है, इसलिये मन द्रव्यों के ग्रहण में व्यञ्जनावग्रह का अवकाश नहीं है । विवेचना - उत्तर में कहते हैं मन ज्ञान का विषय नहीं है किन्तु अर्थ के ज्ञान में साधन है इसलिये वह ग्रहण कहलाता है । मेरु आदि को मन जानता है इसलिये वे मन के ग्राह्य हैं । साधनरूप मन का मेरु आदि विषयों के साथ संबंध नहीं है इसलिये मन का व्यञ्जनावग्रह नहीं सिद्ध होता । मन प्रत्येक समय में मन द्रव्यों का ग्रहण करता
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy