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________________ पञ्चाध्यायी । [ दूसरा 1 शाकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है क्योंकि शुद्धता और अशुद्धता मे दोनों ही विरोधी धर्म हैं । और विरोधी पदार्थ एक स्थानमें रह नहीं सकते । इसलिये शुद्धता और अशुद्धता ये दोनों एक स्थानमें कैसे रह सकती हैं ? वय नहीं रह सकतीं ? इसी को नीचे स्पष्ट करते हैं ६०] अथ सत्यां हि शुडायां क्रियायामर्थतश्चितः । स्वादशुद्धा कथं वा वेदस्ति नित्या कथं न सा ॥ १८२ ॥ अर्थ - यदि वास्तव में जीवमें शुद्धता ही मानी जाय तो अशुद्धता किस प्रकार हो सकती है ? यदि हो सकती है तो वह फिर नित्य क्यों नहीं ? अथ सत्यामशुद्धायां बन्धाभावो विरुद्धभाक् । नित्यायामथ तस्यां हि सत्यां मुक्तेरसंभवः ॥ १८३ ॥ अर्थ -- यदि जीव में अशुद्धता ही मानी जाय तो बन्धका अभाव कभी नहीं हो सकता, यदि वह अशुद्धता नित्य है तो इस जीवात्माकी मुक्ति ही असंभव हो जायगी । भावार्थ - आचार्यने सर्वथा शुद्ध तथा सर्वथा अशुद्ध पक्षमें दोष बतलाकर कथञ्चित् दोनों ही स्वीकार किया है । इससे शङ्काकारका जीवको सर्वथा शुद्ध मानना असत्य हरता है । फलितार्थ— ततः सिद्धं यदा येन भावेनात्मा समन्वितः । तदाऽनन्यगतिस्तेन भावेनात्माऽस्ति तन्मयः ॥ १८४ ॥ अर्थ - ऊपर कहे हुए तीनों श्लोकोंसे यह परिणाम निकालना चाहिये कि जिस समय आत्मा जिस भावसे सहित है उस समय वह उसी भावमें तल्लीन हो रहा है । उस समय उसकी और कोई गति नहीं है । इसीका खुलासा -- तस्माच्छुभः शुभेनैव स्यादशुभोऽशुभेन यः । शुद्धः शुद्धेन भावेन तदात्वे तन्मयत्वतः ॥ १८५ ॥ अर्थ - जिस समय आत्मा शुभ भावोंको धारण करता है उस समय आत्मा शुभ है, जिस समय अशुभ भावोंको धारण करता है, उस समय आत्मा अशुभ है, जिस समय शुद्ध भावोंको धारण करता है, उस समय वही आत्मा शुद्ध है । ऐसा होनेका कारण भी यही है कि जिस समय यह आत्मा जैसे भावोंको धारण करता है उस समय उन्हीं भावोंमें तन्मय (तल्लीन हो जाता है ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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