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________________ ४२ ] पञ्चाध्यायी । [ दूसरा भावार्थ- आत्मा और कर्म, इन दोनोंके स्वरूपका जब विकाररूप परिणयन होता है, दोनों ही जब अपने स्वरूपको छोड़ देते हैं उसीका नाम अशुद्धता है। यह अशु व्यवहार दृशिले है । वास्तव दृष्टिसे आत्मा अमूर्त है । अशुद्धता कर्म और आत्माका भाव दोनों हीके मेळसे होती है, इसलिये अशुद्धतामें दो भाग होते हैं । उन दोनों भागों का याद विचार करें तो एक भाग तो आत्माका है । क्योंकि अशुद्धता आत्माके ही गुणक्री विकार अवस्था है परन्तु दूसरा भाग कर्मका है । इसी लिये रागद्वेषादि वैभाविक अवस्थायें जीवात् और पुल कर्म दोनोंकी हैं। शंङ्काकार ननु चैकं सत्सामान्यात् वैतं स्यात्सविशेषतः । तविशेषेपि सोपाधि निरुपाधि कुतोर्थतः ॥ ११४ ॥ अपिचाभिज्ञानमत्रास्ति ज्ञानं वदरूपयोः । न रूपं न रसो ज्ञानं ज्ञानमात्रमथार्थतः ॥ ११५ ॥ अर्थ — शङ्काकार कहता है कि हर एक पदार्थकी दो अवस्थायें होती हैं । एक सामान्य अवस्था, दूस्री विशेष अवस्था । सामान्य रीतिले पदार्थ एक ही है, और विशेष रीति से दो प्रकार है । ऐसा विशेष खुलासा होने पर भी सोषाधि और मियाधिभेद कैसा ? और ऐसा अनुभव भी होता है कि जो ज्ञान रस रूपको जानता है वह ज्ञान कहीं रूप, सत्र रूप स्वयं नहीं हो जाता है। वास्तव में ज्ञान ज्ञान ही है और रूप, रस पुद्गल ही हैं । भावार्थ - शङ्काकारका अभिप्राय यह है कि सामान्य और विशेषात्मक उभय रूप पदार्थ है । सामान्य दृष्टिसे एक है और विशेष दृष्टिसे उसमें द्विरूपता है, अर्थात् द्रव्यार्थिकनयसे पदार्थ सदा एक है और पर्यायकी अपेक्षासे वही पदार्थ अनेक रूप है । जब ऐसा सिद्धान्तः हैं तो फिर अशुद्ध- आत्मामें जो द्विरूपता है वह पर निमित्तसे क्यों मानी जाके ? ऊपर जो यह कहा गया है कि एक अंश आत्माका है और दूसरा पुलका है: यह कहना व्यर्थ है । अशुद्ध आत्माकी जो द्विरूपता हैं वह आत्माकी ही विशेष अवस्था है । इस लिये आत्मामें सोपाधि और निरुपधि, ऐसे दो भेद करना ठीक नहीं है हम जानते भी हैं कि रूप रसादिको जाननेवाला ज्ञान उन रूपादिः पदार्थोंसे सर्वथा जुदा है जाननेसे ज्ञानमें किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं आती है । शङ्काकारका अभिप्राय है कि अशुद्धता कोई चीज नहीं हैं ? I उत्तर नैवं यतो विशेषोस्ति सविशेषेपि वस्तुतः | अन्वयव्यतिरेकाभ्यां द्वाभ्यां वै सिद्धसाधनात् ॥ ११६ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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