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अध्याय । ]
सुबोधिनी टीका ।
४.१ ]
होते नहीं, किन्तु कर्म ही कारण हैं और कर्म-अवस्था पुगलकी तभी होती है जब कि वह उभयबन्ध रूपमें परिणत हो जाता है ।
भावार्थ - विस्रसोपचय उन्हें कहते हैं कि जो पुद्गल परमाणु ( कार्माण स्कन्ध) कर्मरूप परिणत तो नहीं हुए हों किन्तु आत्मा के आसपास ही कर्मरूप परिणत होनेके लिये सन्मुख हों। इन पुल परमाणुओंकी बन्धरूप अवस्था नहीं है । जिस समय आत्मा रागद्वेवादि कषाय भावोंको धारण करता है उसी समय अन्य संसार में भरी हुई कार्माण वर्गणायें अथवा ये विस्रसोपचय संज्ञा धारण करनेवाले परमाणु झट आत्मा के साथ बँध जाते हैं । बंधनेपर ही उनकी कर्म संज्ञा हो जाती है । उससे पहले २ कार्माण ( कर्म होनेके योग्य) संज्ञा है । ये विस्रसोपचय आत्मासे बँधे हुए कर्मोंसे भी अनन्त गुणे हैं और जीव राशिसे भी अनन्त गुणे हैं । क्योंकि पहले तो आत्माके साथ बंधे हुए कर्म परमाणु ही अनन्तानन्त हैं । उन कर्मरूप परमाणुओंमेंसे प्रत्येक परमाणुके साथ अनन्तानन्त सूक्ष्म परमाणु (विस्रसोपचय) लगे हुए हैं।
अशुद्धता
तद्वत्त्वाविनाभूतं स्याद्शुद्धत्वमक्रमात् ।
तल्लक्षणं यथा द्वैतं स्यादद्वैतात्स्वतोन्यतः ॥ ११२ ॥
अर्थ — आत्माकी बद्धताकी अविनाभाविनी अशुद्धता भी उसी समय आ जाती है । उस अशुद्धताका यही लक्षण है कि स्वयं अद्वैत आत्मा अन्य पदार्थके निमित्तसे द्वैत हो जाता है।
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अशुद्ध भी है अशुद्धता भी
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भावार्थ - जिस समय आत्मा कर्मोंसे बद्ध होता है उसी समय बिना अशुद्धताके बद्धता आ ही नहीं सक्ती है । इसी प्रकार विना बद्धताके नहीं आ सक्ती । इसलिये बद्धता और अशुद्धता ये दोनों अविनाभाविनी हैं । एकके विना दूसरा न होवे इसीका नाम अविनाभाव है । यद्यपि आत्मा स्वयं ( अपने आप ) अद्वैत अर्थात् अमिल-एक है । तथापि अशुद्धताको धारण करनेसे ( पर पदार्थ के निमित्त से) वही आत्मा द्वैत अर्थात् दो रूपधारी ( दुरंगा ) बना हुआ है ।
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आत्मा द्विरूपता किस प्रकारकी है—
तत्राऽद्वैतेपि यद्वैतं तद्विधाप्यौपचारिकम् ।
तत्राद्यं स्वांशसंकल्पश्चेत्सोपाधि द्वितीयकम् ॥ ११३ ॥ अर्थ- आत्मा अशुद्ध अवस्थामें द्विरूपता धारण करता है अर्थात् उसमें दो प्रकार के अंशोंका मेल हो जाता है । यह दोनों ही प्रकारका मेल औपचारिक ( उपचार से ) है । उत् दोनों अशों में एक अंश तो स्वयं आत्माका ही है, और दूसरा उपाधिसे होनेवाला अर्था पदार्थका है।
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