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________________ rnmwwwwwwwwww ३२२ । पञ्चाध्यायी। दूसरा गई है। वास्तवमें लेश्याओंका सद्भाव दश गुणस्थानतक ही है क्योंकि वहीं तक कषार्योंके उदय सहित योगोंकी प्रवृत्ति है। ऊपरके गुणस्थानों में कषायोदय न होनेसे लेश्याओंका लक्षण ही नहीं जाता है । इसलिये ग्यारहवें बारहवें और तेरहवें गुणस्थानोंमें उपचारसे लेश्या कही गई है * उपचारका भी यह कारण है कि इन गुणस्थानोंमें अभी योग प्रवृत्तिका सद्भाव है । यद्यपि कषायोदय नहीं है तथापि दश गुणस्थान तक कषायोदयके साथ २ होनेवाली योग प्रवृत्ति अब भी है इसलिये योग प्रवृत्तिके सद्भावसे तथा भूत पूर्व नयकी अपेक्षासे उपर्युक्त तीन गुणस्थानोंमें उपचारसे लेश्याका सद्भाव कहा गया है + चौदहवें गुणस्थानमें योग प्रवृति भी नहीं है इसलिये वहां उपचारसे भी लेश्याका सद्भाव नहीं है। विशेष-नारकियोंके कृष्ण नील कापोत ये तीन अशुभ लेश्यायें ही (भावलेश्या) होती हैं ! मनुष्य तिर्यञ्चोंके छहों लेश्यायें हो सक्ती हैं। भवनवासी व्यन्तर ज्योतिष्क देवोंके आदिसे पीत पर्यन्त लेश्यायें होती हैं परन्तु इनकी अपर्याप्त अवस्थामें अशुभ होती हैं। तथा आदिके चार स्वर्गों तक पीत लेश्या होती है तथा पद्मका जघन्य अंश होता है। बारहवें स्वर्ग तक पद्म लेश्या तथा शुक्ल लेश्याका जघन्य अंश होता है। इनसे ऊपर शुक्ल लेश्या होती है। परन्तु नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानोंमें शुक्ल लेश्याका उत्कृष्ट अंश होता है। सम्पूर्ण लेश्याओंका जवन्य काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। नील लेश्या का सत्रह मार है। कापोत लेश्याका सात सागर है। पीत लेश्याका दो सागर है। पद्मलेश्याका अठारह सागर है (शुक्ल लेश्याका कुछ अधिक तेतीस सागर है। छहों लेश्याओं वाले जीवोंकी पहचानके लिये उन लेश्याओंवाले जीवोंके कार्य इस प्रकार हैं-कृष्ण लेश्यावाला जीव-तीव्र क्रोध करता है, वैरको नहीं छोड़ता है। युद्धके लिये सदा प्रस्तुत रहता है, धर्म, दयासे रहित होता है, दुष्ट होता है, और किसीके वशमें नहीं आता है ।* नील लेश्या वाला जीव-मंद, विवेकहीन, अज्ञानी, इन्द्रियलम्पट, मानी मायावी, आलसी, अभिप्रायको छिपाने वाला, अति निद्रालु, ठग, और धन धान्य लोलुप होता है। * "मुख्यामावे, सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते " अर्थात् जहां पर मुख्यका अभाव हो परन्तु कोई प्रयोजन अथवा निमित्त अवश्य हो वहीं पर उपचार कथन होता है। ___+ णकसाये लेस्सा उच्चदि सा भूदपुव्व गदिणाया, अहवा जोगप उत्ती मुक्खोत्ति तहिं वे लेस्सा। . गोमट्टसार । * चंडो ण मुचइ बेरं, भंडण सीलो च य धर्मदय रहिओ। दुहो णय एदि वसं लकक्खणमेयं तु किण्हस्स x मंदो बुद्धिविहीणो णिव्विण्णाणी य विसयलोलोय । माणी मायी य तहा आलस्सो चेव भेज्जो य। णिद्दा वंचण बहुलो घण घण्णे होदि तिव्वसण्णाय । लक्खणमेयं भणियं समासदो णीललेस्सस्स ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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