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________________ AMMA جی بی بی حه تم " wwwwwwwwww अध्याय । सुबोधिनी टीका। [ ३२१ होती है वैसी ही द्रव्यलेश्या भी होती है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, मनुष्य, तिर्यच, इनके छहों द्रव्यलेश्यायें होती हैं । उत्तम मोगभूमिवालोंकी सूर्यके वर्णके समान, मध्यम भोग भूमिवालोंकी चन्द्रके वर्णके समान, जघन्य भोगभूमिवालोंकी हरित द्रव्यलेश्या होती है । विग्रहगतिवाले जीवोंकी शुक्ललेश्या होती है । इस प्रकार शरीर नाम कर्म और वर्ण नाम कर्मके उदयसे यह जीव जैसा शरीर ग्रहण करता है वैसी ही द्रव्यलेश्या इसके होती है। परन्तु द्रव्यलेश्या कर्मबन्धका कारण नहीं है। कर्मबन्धका कारण केवल माव लेश्या है। कषायोदय नमित-परिष्पन्दात्मक आत्माके भावोंका नाम ही भाव लेश्या है । द्रव्य लेश्याके समान भावलेश्याके भी कृष्णादिक छह भेद हैं, परन्तु द्रव्यलेश्याके समान भावलेश्या सदा एकसी नहीं रहती है किन्तु वह बदलती रहती है। यहांपर भावलेश्याका थोड़ासा विवेचन कर देना आवश्यक है, क्योंकि भावलेश्याके अनुसार ही यह जीव शुभाशुभ कर्मोका * बन्ध करता है । कषायोंके उदयस्थान असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं। उनमें बहु भाग तो अशुभ लेश्याओंके संकेशरूप स्थान होते हैं और एक भाग प्रमाण शुभ लेश्याओंके विशुद्ध स्थान होते हैं। परन्तु सामान्यतासे ये दोनों भी असंख्यात लोक प्रमाण ही होते हैं। कृष्णादि छहों लेश्याओंके शुभ स्थानोंमें यह आत्मा जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त मंद मंदतर मन्दतम रूपसे परिणमन करता है और उन्हींके अशुभ स्थानोंमें उत्कृष्टसे जघन्य पर्यन्त तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र रूपसे परिणमन करता है। इसप्रकार प्रत्येकमें इन छह रूपोंसे हानि वृद्धि होती रहती है । इस आत्माके संक्लेश परिणामोंकी जैसी २ कमी होती है, वैसे २ ही यह आत्मा कृष्णको छोड़कर नील लेश्यामें आता है, और नीलको छोड़कर कापोती लेश्यामें आता है । तथा संक्लेशकी क्रमसे वृद्धि होनेपर कपोतसे नील और नीलसे कृष्ण लेश्यामें आता है । इस प्रकार संक्लेश भावोंकी हानि वृद्धिसे यह आत्मा तीन अशुभ लेश्याओंमें परिणमन करता है । तथा विशुद्धिकी वृद्धि होनेसे क्रमसे पीतसे पद्म तथा पद्मसे शक्ल में आता है। और विशुद्धिकी हानि होनेसे क्रमसे शुक्लसे पद्म और पद्मसे पीत लेश्यामें आता है, इसप्रकार विशुद्ध भावोंकी हानि वृद्धिसे यह आत्मा शुभ लेश्याओंमें परिणमन करता है। सामान्य रीतिसे चौथे गुणस्थान तक छहों लेश्यायें होती हैं। पांचवे, छठे, सातवें, इन तीन गुणस्थानोमें पीतपद्मशुक्ल ही होती हैं। ऊपरके गुणस्थानोंमें केवल शुक्ल लेश्या ही होती है । लेश्याओंकी सत्ता तेरहवें गुण स्थानतक बतलाई गई है वह उपचारकी अपेक्षासे बतलाई ____ * लिम्पइ अप्पी कीरइ एदाये णियमपुण्ण पुण्णं च, जीवोति होदि लेस्सा, लेरसा गुण जाणयक्खादा। गोमट्टसार। ___ अर्थात् जिन भावोंसे यह आत्मा पुण्य पापका बन्ध करता है उन्हीं भावोंको आचार्योंने लेश्या कहा है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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