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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । [ २८९ अर्थ - उस भाव कर्मके निमित्तसे ज्ञानावरणादि रूप पुद्गल कर्म आते हैं ( आत्माके साथ बँधते हैं ) इसलिये वह कारणरूप है । भावार्थ - भाव कर्मोंके निमित्तसे नवीन क्रमका बन्ध होता है, उन कर्मोंके निमित्तसे नवीन भाव मोह पैदा होता है, फिर उससे नवीन कर्म बँघते हैं उन कर्मोंके निमित्तसे दूसरा भाव मोह पैदा होता है । इस प्रकार यह परस्पर कार्यकारण भाव सन्तति अनादि कालसे चली आ रही है । एक वार द्रव्य मोह कारण पड़ता है। माव मोह उसका कार्य पड़ता है। इस प्रकार परस्पर इन दोनोंमें निमित्त नैमित्तिक माव है। विशेष विशेषः कोप्ययं कार्य केवलं मोहकर्मणः । मोहस्यास्यापि बन्धस्य कारणं सर्वकर्मणाम् ॥ १०७१ ॥ अर्थ - इस भावमोहमें इतनी कोई विशेषता है कि यह कार्य तो केवल मोहनीय कर्मका है, परन्तु कारण उस मोहनीय कर्म तथा सम्पूर्ण कर्मोंके बंधका है । भावार्थ- द्रव्य मोहके उदयसे ही भाव मोह होता है इसलिये वह कार्य तो केवल मोह कर्मका ही है । परन्तु सम्पूर्ण कर्मोंमें स्थिति भन्नुभाव डालनेवाला वही एक भाव मोह है इसलिये वह कारण सब कर्मका है। सारांश अस्ति सिद्धं ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणोः । निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुम्भकुलालयोः ॥ १०७२ ॥ * अर्थ — इस लिये यह बात सिद्ध हो चुकी कि जिस प्रकार कुम्हार और घटका निमिसनैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गल कर्मोंका परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव है। यहां पर दृष्टान्तका उद्दिष्ट अंश ही लेना चाहिये, दृष्टान्त स्थूल है । अन्तर्दृष्ट्या कषायाणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्तनैमित्तिको भावः स्यान्नस्याज्जीवकर्मणोः ॥ १०७३ | अर्थ - - बाह्य दृष्टिसे तो जीव और कमौका परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है परन्तु अन्तरंग दृष्टिसे कषायका निमित्तनैमित्तिक भाव है । अन्तर्दृष्टि से जीव कर्मका नहीं है । भावार्थ - जीवके चारित्र गुणका विकार राग द्वेष है और वही राग द्वेष कर्म बन्धका हेतु है इसलिये अन्तर्दृष्टिसे कषाय भाव चारित्र गुणकी वैभाविक अवस्था और कर्मोंका ही उपर्युक्त सम्बन्ध है । स्थूल दृष्टिसे जीवका भी कहा जा सकता है । 1 यदि जीवका ही उपर्युक्त भाव माना जाय तोपतस्तत्र स्वयं जीवे निमित्ते सति कर्मणाम् । नित्या स्यात्कर्तृता चेति न्यायान्मोक्षो न कस्यचित् ॥ १०७४॥ उ० ३७
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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