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________________ पचाध्यायी। दूसरा बन्धका कारण है । भावार्थ-विना कषाय भावोंके कर्म आत्माके साथ बंध नहीं सक्त हैं, जैसे आते हैं वैसे ही चले आते हैं, कषाय भाव ही उनके बनाका कारण है, इसीलिये वश गुणस्थान तक ही कर्मबन्ध होता है, उससे ऊपर कर्मबन्ध नहीं होता किन्तु योगोंके मिसे जिस समयमें कर्म आते हैं उसी समयमें खिरते भी जाते हैं। __ भाव मोह ही अनोंका मूल हैअपि यावदनानां मूलमेकः स एव च । यस्मादनर्थमूलानां कर्मणामादिकारणम् ॥ १०६६ ॥ अर्थ-संसारमें जितने भी अनर्थ हैं उन सबका मूल कारण वही भाव मोह है क्योंकि अनर्थके मूल कारण कर्म हैं और उन कर्मों का भी आदि कारण वह भाव मोह है। और भीअशुचिर्घातको रौद्रो दुःखं दुःखफलं च सः। किमत्र बहुनोक्तेन सर्वासां विपदां पदम् ॥ १०६७ ॥ अर्थ-यह भाव मोह अपवित्र है, आत्माके गुणोंका घातक है, रौद्रस्वरूप है, "दुःखरूप है, और दुःखका फल स्वरूप है, अथवा दुःख ही उसका फल है। उस माव मोहके विषयमें अधिक क्या कहा जाय, सम्पूर्ण आपसियों का वह स्थान है । भावमोहमें परस्पर कार्यकारण भावकार्यकारणमप्येष मोहो भावसमाह्वयः। * सवेवडानुवादेन प्रत्यग्रानवसंचयात् ॥ १०६८॥ अर्थ-यह भाव मोह कार्य भी है और कारण भी है । पूर्व बाँधे हुए कोंके उ. दयसे होता है इसलिये तो कार्य रूप है, तथा नवीन काँके आस्त्रवका सञ्चय करता है इसलिये कारण रूप है । नीचेके श्लोकोंमें भाव मोहका परस्पर कार्य कारण भाव अन्धकार स्वयं कहते हैं यदोच्चैः पूर्ववडस्य द्रव्यमोहस्य कर्मणः । पाकाल्लब्धात्मसर्वस्वः कार्यरूपस्ततो नयात् ॥ १०६९ ॥ संशाधत. पुस्तकम, 'पूनवेदानवोदुन पाठ से rem ma am- Amarna करना है उस समय यह मार्गका है। समिनमात्रीकन्योःच्छन्ति जल सानास्पादिस्माय नमानामित कारमम् ।। है. संघोषित पुस्तकमे 'पूर्ववद्वानुवादेन' पाठ है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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