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________________ २६२ ] पञ्चाध्यायी। मोहनीय कर्मके भदमोहनान्मोहकमैकं तद्विधा वस्तुतः पृथक् । दृङ्मोहश्चात्र चारित्रमोहश्चेति द्विधा स्मृतः॥९८६ ॥ अर्थ-मूर्छित करनेसे सामान्य रीतिसे मोहकर्म एक प्रकार है। और वही दर्शनमोह और चारित्रमोहकी अपेक्षासे वास्तवमें दो प्रकार भी है। भावार्थ-अन्य कर्मोंकी अपेक्षा मोहकर्ममें बहुत विशेषता है, अन्यकर्म अपने प्रतिपक्षी गुणमें न्यूनता करते हैं उसे सर्वथा भी ढक लेते हैं परन्तु अपने प्रतिपक्षी गुणको मूर्छित नहीं करते हैं, जैसे ज्ञानावरण कर्म ज्ञानगुणको ढकता है परन्तु ज्ञानगुणको अज्ञानरूप नहीं करता है, इसी प्रकार अन्तराय कर्म वीर्यगुणको ढकता है परन्तु उसे उल्टे रूपमें नहीं लाता है । उल्टे रूपमें लानेकी विशेषता इसी मोहनीय कर्ममें है, मोहनीय कर्म अपने प्रतिपक्षीको सर्वथा विपरीत स्वादु बना डालता है। इसीलिये इसका नाम मोहनीय है अर्थात् मोहनेवाला-मूर्छित करनेवाला है । सामान्य रीतिसे वह एक है, और दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय ऐसे उसके दो भेद हैं । इसी मोहनीय कर्मके उदयसे सम्यग्दर्शन मिथ्यादर्शनरूप और सम्यक्चारित्र मिथ्याचारित्ररूप परिणत होजाता है। इसीके निमित्तसे जीव अनन्त संसारमें भ्रमण करता फिरता है। ___ दर्शन मोहनीयके भेदएकधा त्रिविधा वा स्यात् कर्ममिथ्यात्वसज्ञकम् । क्रोधाद्याद्यचतुष्कञ्च, सप्तैते दृष्टिमोहनम् ॥ ९८७ ॥ अर्थ-दर्शन मोहनीय कर्म भी सामान्य रीतिसे मिथ्यात्वरूप एक प्रकार है, विशेष रीतिसे मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यकप्रकृतिमिथ्यात्व, भेदोंसे तीन प्रकार है, और अनन्तानुबन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ चार भेद प्रथम कषायके हैं। इस प्रकार ये सात भेद दर्शनमोहनीयके हैं। भावार्थ-मूलमें दर्शनमोहनीयका एक ही भेद है-मिथ्यात्व । पीछे प्रथमोपशम सम्यक्त्वके होनेपर उस मिथ्यात्वके तीन टुकड़े हो जाते हैं । एक सम्यक्त्व प्रकृति, दूसरा-सम्यमिथ्यात्वप्रकृति, तीसरा मिथ्यात्वप्रकृति, ये तीन टुकड़े ऐसे ही होते हैं जैसे धान्यको पीसनेसे उसके तीन टुकड़े होते हैं, एक तो छिलकारूप, दूसरा सूक्ष्म कणरूप तीसरा मध्यमका सारभूत अंश-मिगीरूप । जिस प्रकार छिलकेमें पुष्ट करनेकी शक्ति नहीं है, उसी प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिमें भी सम्यग्दर्शनको घात करनेकी पूर्ण शक्ति नहीं है तो भी उसमें चलता, मलिनता आदि दोष उत्पन्न करनेकी अवश्य थोड़ीसी शक्ति है । 'सम्क्त्वप्रकृतिके उदय होनेपर सम्यग्दर्शनका घात नहीं होता है किन्तु उस समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । जिस प्रकार सूक्ष्म धान्यकणमें पुष्ट करनेकी शक्ति है उसी
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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