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________________ अध्याय । ] सुबोधिनी टीका । विकृतावस्थामें जीवकी वास्तवमें हानि हैअस्ति तत्र क्षतिनं नाक्षतर्वास्तवादपि । जीवस्यातीवदुःखित्वात् सुखस्योन्मूलनादपि ॥ ९५५॥ अर्थ-जीवकी विकृत अवस्था में वास्तवमें हानि है। विकृत अवस्थासे जीवकी वास्तवमें कुछ हानि न हो ऐसा नहीं है। क्योंकि विकृतावस्थामें जीवको अत्यन्त दु:ख होता है और इसका स्वाभाविक सुख गुण नष्ट हो जाता है । भावार्थ-जो लोग सर्वथा निश्चय पर आरूढ़ है वे ऐसा कहते हैं कि कर्मबन्धसे वास्तवमें आत्माकी कोई हानि नहीं है, आत्मा सदा शुद्ध है । ऐसा कहनेवाले व्यवहारनयको सर्वथा मिथ्या समझते हैं परन्तु यह उनकी भूल है, कर्मबन्धसे ही जीव कष्ट भोग रहा है, अत्यन्त दु:खी हो रहा है, चारों गतियोंमें घूमता फिरता है, रागद्वेषसे मूर्छित हो रहा है, अल्पज्ञानी हो रहा है इत्यादि अवस्थायें इसकी प्रत्यक्ष दीख रही हैं इसी लिये आचार्यने इस श्लोक द्वारा बतलाया है कि वास्तवमें भी इस जीवकी विकृतावस्थामें हानि हो रही है, केवल निश्चय नय पर आरूढ़ रहनेवालोंको नयोंके स्वरूपपर भी थोड़ा विचार अवश्य करना चाहिये। उन्हें सोचना चाहिये कि निश्चय नय और व्यवहार नय कहते किसे हैं ? यथार्थमें नय नाम किसी अपेक्षासे पदार्थके निरूपण करनेका है । निश्चय नय आत्माके शुद्ध स्वरूपका निरूपण करता है, वह बतलाता है कि आत्मा कर्मोंसे सर्वथा भिन्न है, वह सदा शुद्ध ज्ञान शुद्ध दर्शनवाला है, वह चारों गतियोंके दुःखका भोक्ता नहीं है इत्यादि, यह सब कथन आत्माके असली स्वरूपके विचारकी अपेक्षासे है, अर्थात् आत्माका शुद्ध स्वरूप, कर्मोके निमितसे होनेवाली अवस्थासे सर्वथा भिन्न है, बस इसी शुद्ध स्वरूपको प्रकट करना ही निश्चय नयका कार्य है। परन्तु वर्तमानमें जो कर्मकृत अवस्था हो रही है वह मिथ्या नहीं है किन्तु वह जीवकी शुद्ध अवस्था नहीं है इसी लिये नयकी दृष्टिसे यह जीवकी विकृतावस्था मिथ्या प्रतीत होती है । वास्तवमें यह जीवकी निज अवस्था नहीं है इसको व्यवहार नय बतलाता है इसीलिये उसे भी मिथ्या कह दिया जाता है। अन्यथा यदि विकृतावस्था कुछ वस्तु ही न हो, केवल कल्पना अथवा भ्रमात्मक बोध ही हो तो फिर यह शरीरका सम्बन्ध और पुण्य पापका फल तथा जीवका अच्छा बुरा कर्तव्य कुछ नहीं ठहरता है, इसलिये ये सब बातें यथार्थ हैं और विकृतावस्थासे जीव वास्तवमें दुःखी है और उसके सुख गुणकी हानि हो रही है x इसी बातको ग्रन्थकार आगे स्पष्ट करते हैं ___x निश्चयनयपर ही चलनेवाले पूजन आदि शुभ कार्यों में भी उदास हो जाते हैं यह उनकी भारी भूल है। उन्हें स्वामी समन्तभद्रादि आचार्योंकी कृतिपर ध्यान देना चाहिये कि जिन्होंने केवल आत्माको ध्येय बनाते हुए भी भक्तिमार्गको कहां तक अपनाया है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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