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२५२] पश्चाध्यायी।
[दूसरा अर्थ-जिस प्रकार दर्पणमें स्वभावसे ही स्वच्छता ( निर्मलता ) सिद्ध है। तथापि सम्बन्ध होनेसे उसकी विकार अवस्था होजाती है। और वह विकार वास्तविक है। भावार्थ-मुखका प्रतिबिम्ब पड़नेसे दर्पणका स्वरूप मुखमय होजाता है। वह उसकी विकारावस्था है और वह केवल कल्पना मात्र नहीं है किन्तु वास्तवमें कुछ वस्तु है। क्योंकि छाया पुद्गलकी पर्याय है । दर्पणकी मुखमय पर्याय सामने ठहरे हुए मुखके निमित्तसे होती है । उसी प्रकार जीवके रागद्वेष परिणामोंसे उस वैभाविक गुणकी विकारावस्था होरही है । ऐसी अवस्था इसकी अनादिकालमे है।
विकारावस्थामें पदार्थ सर्वथा अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता हैवैकृतत्वेपि भावस्य न स्यादर्थान्तरं क्वचित् ।
प्रकृती यहिकारित्वं वैकृतं हि तदुच्यते ॥ ९५२॥
अर्थ-विकृत अवस्था होनेपर भी पदार्थ कहीं बदल नहीं जाता है। प्रकृतिमें जो विकृति होती है उसे ही उसका विकार कहते हैं। भावार्थ-पदार्थमें जो विकार होता है वह उसी पदार्थका विकार कहा जाता है। ऐसा नहीं है कि पदार्थ ही बदल कर दूसरे पदार्थरूप हो जाता हो । यदि ऐसा होता तो फिर उसे उसी पदार्थका विक.र नहीं कहना चाहिये किन्तु पदार्थान्तर ही कहना चाहिये, इसलिये स्वभाव सिद्ध पदार्थमें जो विकृति होती है वह , उसी पदार्थकी निमित्तान्तरसे होनेवाली अशुद्ध अवस्था है जिस निमित्तसे वह अशुद्धावस्था हुई है उस निमित्तके दूर होनाने पर वह पदार्थ भी अपने प्राकृतिक स्वरूपमें आ जाता है।
दृष्टान्ततथापि वारुणीपानाद् बुद्धिर्नाऽबुद्धिरेव नुः । ।
तत्प्रकारान्तरं बुद्धौ वैकृतत्वं तदर्थसात् ॥ ९५३ ॥
अर्थ--जिस प्रकार मदिरा पीनेसे मनुष्यकी बुद्धि बुद्धि ही रहती है वह अबुद्धि ( पदार्थान्तर ) नहीं होनाती है किन्तु बुद्धिमें ही कुछ दूसरी अवस्था हो जाती है। जो बुद्धिकी दूसरी अवस्था है वही उसकी वास्तविक विकृति है। भावार्थ-सुबुद्धि रूप परिणमनको ही बुद्धिकी विकृतावस्था कहते हैं।
प्राकृतं वैकृतं वापि ज्ञानमात्रं तदेव यत् । __ यावदत्रेन्द्रियायत्तं तत्सर्व वैकृतं विदुः ॥ ९५४ ॥
अर्थ--स्वाभाविक ज्ञान हो, अथवा वैभाविक ज्ञान हो सभी ज्ञान ही कहा जायगा। क्योंकि ज्ञान ना दोनों ही अवस्थाओंमें है । परन्तु इतना विशेष है कि नितना भो इन्द्रियोंसे ज्ञान होता है वह सब वैभाविक है ।