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________________ १३६] पञ्चाध्यायी। [ दूसरी ~ ~ ~ ~ ~ ~ अबुद्धिपूर्वक राग कहां तक होता है। अस्ति चोर्ध्वमसौ सूक्ष्मो रागश्चाबुद्धिपूर्वलः । अर्वाक क्षीणकषायेभ्यः स्याद्विवक्षावशान्नवा ॥ ९१२ ॥ अर्थ-प्रमत्त गुणस्थानसे ऊपर सूक्ष्म-अबुद्धि पूर्वक राग है। यह राग क्षीणकषायसे पहले २ होता है। सो भी विवक्षाधीन है। यदि विवक्षा की जाय तो अबुद्धिपूर्वक-सूक्ष्म राग है अन्यथा नहीं है। भावार्थ-दश गुणस्थानमें सूक्ष्म लोभका उदय रहता है। उससे पहले नवमें गुणस्थानमें वादर कषायका उदय है। परन्तु वह भी सूक्ष्म ही है। दशवें गुणस्थान तक सूक्ष्म रागभाव रहता है इसलिये तो वहां तक अबुद्धि पूर्वक रागभावकी विवक्षा की जाती है। परन्तु सातिशयअप्रमत्त गुणस्थानसे उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी माड़ना शुरू होनाता है। इसलिये आठवें गुणस्थानसे लेकर दश तक कोई मुनि उपशमश्रेणी माड़ते हैं और कोई क्षपकश्रेणी माइते हैं। जो उपशमश्रेणी माड़ते हैं उनके औपशमिक भाव हैं और जो क्षपकश्रेणी माड़ते हैं उनके क्षायिक भाव हैं । स्थूल दृष्टिसे आठवें नवमें और दश इन तीन गुणस्थानोंमें औपशमिक अथवा क्षायिक दो प्रकारके ही भाव हैं परन्तु सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करने पर वहां पर क्षायोप. पशमिक भाव भी है। क्योंकि चरित्र मोहनीयका वहां मन्दोदय भी तो होरहा है। उस मंदोदयकी विवक्षा करनेसे ही वहां क्षायोपशमिक भाव हैं अन्यथा नहीं हैं। यही विवक्षा बशातका आशय है। उपचार किस नयसे किया जाता है. विमृश्यैतत्परं कश्चिदसद्भूतोपचारतः।। रागवज्ज्ञानमत्रास्ति सम्यक्त्वं तबदीरितम् ॥ ९१३ ॥ अर्थ-इसी बातको विचार कर किन्हीं पुरुषोंने असद्भुत उपचार नयसे राग सहित ज्ञानको देखकर सम्यक्त्वको भी वैसा कहा है । भावार्थ-जो मिले हुए भिन्न पदार्थोंको अभेदरूप ग्रहण कर उसे असद्भुत व्यवहारनय कहते हैं जैसे आत्मा और शरीरका मेल होने पर कोई कहै यह शरीर मेरा है । इसी प्रकार राग भिन्न पदार्थ है परन्तु अभेद बुद्धिके कारण ज्ञान और दर्शनको भी किन्हींने सरागी (सविकल्प) कह दिया है वास्तवमें राग दूसरा पदार्थ हैं; ज्ञानदर्शन दूसरे पदार्थ हैं; रागका ज्ञान दर्शनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिये इनमें सरागता केवल औपचारिक है। ज्ञान, दर्शन कहां तक सविकल्प कहे जाते हैंहेतोः परं प्रसिद्धैः स्थूललक्ष्यैरितिस्मृतम् । *आप्रमत्तं च सम्यक्त्वं ज्ञानं वा सविकल्पकम् ॥ ९१४ ॥ * मूल पुस्तकमें “ अप्रमत्तं , ऐसा पाठ है परन्तु 'आप्रमत्तं ' पाठ ठीक प्रतीत होता है क्योंकि पहले छठे गुणस्थान तक ही बुद्धिपूर्वक राग बतलाया गया है। . .
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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