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________________ सुबोधिनी टीका । रागसहित शान शान्त नहीं हैं स्वसंवेदन प्रत्यक्षादस्ति सिद्धमिदं यतः । रागाक्तं ज्ञानमक्षान्तं रागिणो न तथा मुनेः ॥ ९०९ ॥ अर्थ - यह वात स्वंसवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध है कि राग सहित ज्ञान शान्त नहीं है । ऐसा शान्ति रहित ज्ञान जैसा रागी पुरुषके होता है वैसा मुनिके नहीं होता । भावार्थ- जो ज्ञान शांति रहित होगा वह राग सहित अवश्य होगा इसलिये वह रागी पुरुष के ही हो सकता है रागरहित मुनिके नहीं । अध्याय । ] wwwwwwww [२३५ अस्तिज्ञानाविनाभूतो रागो वुद्धिपुरस्सरः । अज्ञातेर्थे यतो न स्याद् रागभावः खपुष्पवत् ॥ ९९० ॥ अर्थ – बुद्धिपूर्वक राग ज्ञानका अविनाभावी है। क्योंकि अज्ञात (नहीं जाने हुए ) पदार्थ में राग भाव उत्पन्न हीं नहीं होता है । जिस प्रकार आकाशका पुष्प कोई पदार्थ नहीं है। तो उसमें बुद्धिपूर्वक राग भी नहीं हो सक्ता है । भावार्थ - राग दो प्रकारका होता है एक बुद्धिपूर्वक, दूसरा अबुद्धिपूर्वक । बुद्धिपूर्वक रागका क्षायोपशमिक ज्ञानके साथ अविनाभाव है । जिसके बुद्धिपूर्वक राग होता है उसीके कर्म चेतना होती है परन्तु ऐसा नियम नहीं है क्योंकि • बुद्धिपूर्वक राग चौथे गुणस्थान में भी है तथा ऊपर भी है परन्तु वहां कर्म चेतना नहीं है किन्तु ज्ञान चेतना है | इतना विशेष है कि बुद्धिपूर्वक राग कर्मबन्धका ही कारण है । जिस जीवके सम्यक्त्व नहीं है बुद्धिपूर्वक राग है उसके कर्मचेतना होती है । यह कर्म चेतना ही महात् दुःखका कारण है । नरकादि गतियोंका बन्ध कर्मचेनासे ही होता है । अबुद्धिपूर्वक राग कर्मोदयवश अज्ञात पदार्थमें ही होता है। जिन जीवोंके अबुद्धि पूर्वक राग है उन्हींके कर्मफल चेतना होती है । असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक कर्मफल चेतना ही होती है । बुद्धिपूर्वक राग कहां तक होता है । अस्त्युक्तलक्षणो रागश्चारित्रावरणोदयात् । I अप्रमत्तगुणस्थानादर्वाक् स्यान्नोर्ध्वमस्त्यसौ ॥ ९११ ॥ अर्थ - ऊपर कहा हुआ बुद्धिपूर्वक राग चारित्रमोहनीयके उदयसे होता है यह रग अप्रमत्त गुण स्थानसे पहले २ होता है । छठे गुणस्थान से ऊपर सर्वथा नहीं होता है । भावार्थ-छठे गुणस्थान में संज्वलन कषायका तीव्रोदय है इसीलिये प्रमादरूप परिणामोंके कारण वहां बुद्धिपूर्वक राग होता है । अप्रमत्त गुणस्थान में संज्वलनका मन्दोदय है । वहांपर प्रमादरूप परिणाम सर्वथा ही नहीं होते हैं। केवल ध्यानावस्था है । जितनी मुनियों की कर्तव्य क्रिया है वह सब प्रमत्त गुणस्थान तक ही है। हां, स्वाध्याय, भोजन आदि क्रियाओं में भी बीच २में सातवां गुणस्थान हो जाता है। क्योंकि छठा और सातवाँ दोनोंका ही अन्तर्मुहूर्त काल है । इसलिये दोनों ही अन्तर्मुहूर्त में बदल जाते हैं ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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