SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय। सुबोधिनी टीका । अथवाआत्मशुद्धरदौर्बल्यकरणं चोपव्रहणम् । अर्थादृग्ज्ञप्तिचारित्रभावात् संवलितं हि तत् ॥ ७७९ ॥ अर्थ-आत्माकी शुद्धिमें मन्दता नहीं आने देना किन्तु उसे बढ़ाना इसका नाम भी उपत्रहण है, अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र, इन भावोंसे विशिष्ट आत्माकी शुद्धिको बढ़ाते रहना उसमें किसी प्रकारकी शिथिलता नहीं आने देना इसीका नाम उपद्रहण है। ___ उपत्रहण गुणधारीका स्वरूपजानन्नप्येष निःशेषापौरुषं प्रेरयन्निव । तथापि यत्नवान्नात्र पौरुषं प्रेरयन्निव ॥ ७८० ॥ अर्थ-उपव्रहण गुणका धारी पुरुष पुरुषार्थ पूर्वक सम्पूर्ण ऐहिक बातोंको जानता है परन्तु उन ऐहिक ( संसार सम्बन्धी ) बातोंके प्राप्त करनेके लिये वह पुरुषार्थ पूर्वक प्रयत्न नहीं करता है। नायं शुद्धोपलव्धौ स्याल्लेशतोपि प्रमादवान् । निष्प्रमाद्तयाऽऽत्मानमाददानः समादरात् ॥ ७८१ ॥ अर्थ-उपव्रहण गुणका धारक आत्माकी शुद्ध-उपलब्धिमें लेश मात्र भी प्रमादी नहीं है किन्तु प्रमाद रहित आदर पूर्वक अपने आत्माका ग्रहण करता है। यदा शुद्धोपलब्ध्यर्थमभ्यस्येदपि तद्वहिः। सक्रियां काश्चिदप्यर्थात्तत्तत्साध्योपयोगिनीम् ॥ ७८२॥ अर्थ-अथवा वह शुद्धोपलब्धिके लिये बाह्य किसी सक्रियाका भी अभ्यास करता है जो कि उसके साध्यमें उपयोगी पड़ती है। बाह्य आचरणमें दृष्टान्तरसेन्द्र सेवमानोपि कोपि पथ्यं न वाऽऽचरेत् । आत्मनोऽनुल्लाघतामुज्झन्नुज्झन्नुल्लाघतामपि ॥ ७८३ ।। अर्थ-कोई पुरुष रसायनका सेवन भी करै परन्तु पथ्य न करै तो रसायनसे जिस प्रकार वह अपने रोगका नाश करता है उसी प्रकार पथ्यके न करनेसे नीरोगताका भी नाश करता है। भावार्थ-रोगको दूर करनेके लिये उचित औषधिके सेवनके साथ २ अनुकूल पथ्य करनेकी भी आवश्यकता है । अन्यथा रोग दूर नहीं हो सक्ता है । उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिको साध्योपयोगी बाह्य सक्रियाओंके करनेकी भी आवश्यकता है।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy