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________________ २०२ ]. पञ्चाध्यायी । दूसरा ओंका होना स्वाभाविक बात है, इसलिये सम्यग्दृष्टि भी बहुतसी बातों में शंकित रहता है, परन्तु शंकायें दो प्रकारकी होती हैं। एक तो जिस पदार्थमें शंका होती है उस पदार्थ में आस्था (श्रद्धा) रूप बुद्धि तो अवश्य रहती है परन्तु ज्ञानकी मन्दतासे पदार्थका स्वरूप बुद्धिमें न आनेसे शंका होती है, सम्यग्दृष्टिको इस प्रकारकी ही शंका होती है। वह सर्वज्ञ कथित पदार्थ व्यवस्थाको तो सर्वथा सत्य समझता है, परन्तु बुद्धिकृत दोषसे उसके समझने में असमर्थ है। दूसरी शंका कुमतिज्ञानवश होती है। कुमतिज्ञानी अपनी बुद्धिको दोष नहीं देता है किन्तु सर्वज्ञ कथित आगमको ही दोषी ठहराता है, वह जिस पदार्थमें शंका करता है उस पदार्थपर श्रद्धा रूप बुद्धि नहीं रखता है। ऐसे ही पुरुष आजकल कालदोषसे अधिकतर होते चले जाते हैं जो स्वयंको बुद्धिमान् समझते हुए आचार्योंको अपनेसे विशेष ज्ञानवान नहीं समझते हैं। ऐसे ही पुरुष जिन दर्शन, जिन पूजन आदि नित्य क्रियाओंको रूढि कह कर छोड़ ही नहीं देते हैं किन्तु दूसरोंको भी ऐसा अहितकर उपदेश देते हैं। ऐसे लोगोंका यह भी कहना है कि विचार स्वातन्त्र्यको मत रोको, जो कोई जैसा भी विचार (चाहे वह जिन धर्मके सर्वथा विपरीत ही हो ) प्रकट करना चाहे करने दो, इन्हीं बातोंका परिणाम आजकल धर्म शैथिल्य और धर्म विरुद्ध प्रवृत्तियोंका आन्दोलन है । ये सम्पूर्ण बातें धर्माचार्य तथा गृहस्थाचार्य के अभाव होनेसे हुई हैं। धार्मिक अंकुश अब नहीं रहा है इसलिये जिसके मनमें जो बात समाती है उसके प्रकट करनेमें वह जरा भी संकोच नहीं करता है । यही कारण है कि दिन पर दिन धर्म में शिथिलता ही आ रही है । * उपगूहन अंगका निरूपण उपवहणनामास्ति गुणः सम्यग्दृगात्मनः । लक्षणादात्मशक्तीनामवश्यं ब्रहणादिह ॥ ७७८ ॥ अर्थ -- सम्यग्दृष्टिका उपहण ( उपगूहन ) नामक भी एक गुण है । उसका यह लक्षण है कि अपनी आत्मिक शक्तियोंको बढ़ाना अथवा उनका विकाश करना। इसीसे उसका अन्वर्थ नाम उपवहण है । * इस विषय में स्वामी आशाघरने बहुत ही खेदजनक उद्गार प्रकट किये हैंकलिप्रावृषिमिथ्यादिङ्मेघच्छन्नासु दिश्विह । खद्योतवत्सुदेष्टारो हा ! द्योतन्ते क्वचित्कचित् । अर्थात् इस भरत क्षेत्र में कलिकाल - पंचमकालरूपी वर्षाकाल में मिथ्यादृष्टियों के उपदेश रूपी मेघाँसे सदुप देश रूपी सब दिशायें ढक रहीं हैं । उसमें यथार्थ तत्वों के कहीं २ पर दिखलाई पड़ते हैं । ग्रन्थकारने इस विषयका शब्दका प्रयोग किया है । उपदेष्टा खद्योत ( जुगुनू ) के समान शोक प्रकट करनेके लिये 'हा', सागारधर्मामृत " । 66
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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