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________________ २००]. पञ्चाध्यायी। दूसरा अर्थ-इसलिये उन तीनोंमेंसे किसी एकका कथन भी कहीं दोषाधायक नहीं है। मोक्षमार्ग एक साध्य है और ये तीनों ही उसके साधक रूपसे कहे जाते हैं। बन्ध मोक्ष व्यवस्थाबन्धो मोक्षश्च ज्ञातव्यः समासात्प्रश्नकोविदैः। रागांशैर्वन्ध एव स्यान्नोऽरागांशैः कदाचन ॥ ७७३ ॥ ___ अर्थ-प्रश्न करनेमें जो अति चतुर हैं उन्हें बन्ध और मोक्षकी व्यवस्था भी संक्षेपसे जान लेना चाहिये । वह यह है कि रागांश-परिणामोंसे बन्ध होता है और विना रागांशपरिणामोंके बन्ध कभी नहीं हो सकता । ग्रन्थान्तर ** येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । __येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ ७७४ ॥ अर्थ-जिस अंशसे आत्मा सम्यग्दर्शन विशिष्ट है उस अंशसे उसके कर्मबन्ध नहीं होता और जिस अंशसे उसके राग है उस अंशसे उसके कर्मबन्ध होता है। भावार्थ-बन्धका कारण केवल रागांश ही है। संकोच और प्रतिज्ञाउक्तो धर्मस्वरूपोपि प्रसङ्गात्सङ्गतोंशतः। कविलब्धावकाशस्तं विस्तरादा करिष्यति ॥ ७७५ ॥ अर्थ-प्रसङ्गवश अंशरूपसे धर्मका स्वरूप भी कहा गया, अब आवार्य कहते हैं कि अवकाश पाकर उस धर्मका स्वरूप विस्तार पूर्वक भी कहेंगे । सारांशदेवे गुरौ तथा धर्मे दृष्टिस्तत्वार्थदर्शिनी । ख्याताप्यम्ढदृष्टिः स्यादन्यथा मूढदृष्टिता ॥ ७७६ ॥ अर्थ-देव गुरु और धर्ममें श्रद्धान करना अमूढदृष्टि अंग कहलाता है, अन्यथा (इसकी विपरीततामें) मूढदृष्टि दोष कहलाता है। अमूढदृष्टि सम्यक्त्वका गुण हैसम्यक्त्वस्य गुणोप्येष नालं दोषाय लक्षितः । सम्यग्दृष्टियतोवश्यं तथा स्यान्न तथेतरः ॥ ७७७ ॥ * पुरुषार्थसिद्धयुपाय ।
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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