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________________ अध्याय सुबोधिनी टीका। सम्यग्दर्शनको प्रधानताकिञ्च सद्दर्शनं हेतुः सँविचारित्रयोईयोः सम्यग्विशेषणस्योच्चैर्यद्वा प्रत्यग्रजन्मनः ॥ ७६८ ॥ अर्थ-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, दोनोंमें सम्यग्दर्शन कारण है, और वह कारणता भी नवीन जन्म धारण करनेवाले सम्यग् विशेषणकी अपेक्षासे है अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रको प्रकट करने में कारण नहीं है किन्तु ज्ञान और चारित्रमें सम्यक्पना लानेमें कारण है । इसी लिये वह तीनोंमें प्रधान है। इसीका खुलासाअर्थोयं साति सम्यक्त्वे ज्ञानं चारित्रमत्र यत् ।। भूतपूर्व भवेत् सम्यक् सूते वाऽभूतपूर्वकम् ॥ ७६९ ॥ अर्थ-उपर्युक्त कथनका मष्ट अर्थ यह है कि सम्यग्दर्शनके होने पर ज्ञान और चारित्र सम्यक् विशेषणको धारण करते हैं। अथवा उनदोनोंमें नवीन सम्यक्पना आता है। भावार्थ-जब सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (इनके सम्यक्पने में सम्यग्दर्शन कारण है। तो ये दोनों उसके कार्य हैं । कार्यसे कारणका अनुमान हो ही जाता है। इसलिये सम्यक् चारित्रके 'कहनेसे दर्शन और ज्ञानका समावेश उसमें स्वयं सिद्ध है । इस कथनसे शंकाकारकी यह शंका कि जब तीनों ही मोक्ष मार्ग हैं तो — मुनियोंके केवल चारित्रका ही निरूपण क्यों किया जाता है सर्वथा निर्मूल है। सम्यग्दर्शनका माहात्म्यशुद्धोपलब्धिशक्तियों लब्धिर्ज्ञानातिशायिनी। सा भवेत्सति सम्यक्त्वे शुद्धो भावोऽथवापि च ॥ ७७० ॥ अर्थ-आत्माकी शुद्धोपलब्धि कारणीभूत जो अतिशय ज्ञानात्मक लब्धि (मतिज्ञानावरणीय कर्मका विशेष क्षयोपशम) है वह सम्यग्दर्शनके होने पर ही होती है। अथवा आत्माका शुद्ध भाव-शुद्धात्मानुभूति सम्यग्दर्शन होने पर ही होती है। ___ यत्पुनद्रव्यचारित्रं श्रुतं ज्ञानं विनापि दृक् । न तज्ज्ञानं न चारित्रमास्ति चेत्कर्मबन्धकृत् ॥ ७७१॥ . अर्थ-और भी जो द्रव्य चारित्र और श्रुतज्ञान है यदि वह सम्यग्दर्शन रहित है तो न तो वह ज्ञान है और न वह चारित्र है, यदि है तो केवल कर्मबन्ध करनेवाला ही है। सारांशतेषामन्यतमोद्देश्यो नास्ति दोषाय कुत्रचित् । मोक्षमार्गकमाध्यस्य साधकानां स्मृतेरपि ॥ ७७२ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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