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________________ १७८] पञ्चाध्यायी । [ दूसरा बाह्य आचादिप को चाहे तो अवश्य उसके लिये वह बाह्य पर फल सहित है अर्थात उसका फिर सांसारिक फल होगा । आचार्यको निरीहता ।— किं पुनर्गणिनस्तस्य सर्वतोनिच्छतो वहिः । धर्मादेशोपदेशादि स्वपदं तत्फलं च यत् ॥ ७०४ ॥ अर्थ - धर्मका उपदेश, धर्मका आदेश, अपना पदस्य और उसका फल आदि सम्पूर्ण बाह्य बातोंको सर्वथा नहीं चाहनेवाले आचार्यकी तो बात ही निराली है । भावार्थ - धर्मादेश, देश आदि कार्यों को आचार्य चाहनापूर्वक नहीं करता है, किन्तु केवल धार्मिक बुद्धिसे करता है इसलिये बाह्यकारण उसकी विशुद्धिका विद्यातक नहीं है । यहां पर कोई शंका कर सकता है कि जब आचार्य मुनियोंपर पूर्ण रीति से धर्मादेशादि शासन करते हैं तब यह कैसे कहा जा सकता है कि उनके इच्छा नहीं है, विना इच्छाके तो वे शासन ही नहीं कर सकते हैं ? इस शंकाका उत्तर इस प्रकार हैं नास्यासिद्धं निरीहत्वं धर्मादेशादि कर्मणि । न्यायादक्षार्थकांक्षाया ईहा नान्यत्र जातुचित् ॥ ७०५ ॥ I 'अर्थ - धर्मादेशादि कार्य करते हुए भी आचार्य इच्छाविहीन हैं यह बात असिद्ध नहीं है । जो इन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंमें इच्छा की जाती है वास्तवमें उसीका नाम इच्छा है, जहां पर धार्मिक कार्यों में इच्छा की जाती है उसे इच्छा ही नहीं कहते हैं । भावार्थ — जिस प्रकार सांसारिक वासनाओंके लिये जो निदान किया जाता है उसीको निदानवन्ध कहा जाता है जो पुरुष मोक्षके लिये इच्छा रखता है उसको निदान बन्धवाला नहीं कहा जाता है, उसी प्रकार जो इच्छा सांसारिक वासनाओंके लिये की जाती है वास्तव में वही इच्छा कहलाती है, जो धार्मिक कार्यों में मनकी वृत्ति लगाई जाती है उसे इच्छा, शब्दसे भले ही कहा जाय परन्तु वास्तव में वह इच्छा नहीं है क्योंकि इच्छा वहीं कही जाती है जहांपर किसी वस्तुकी चाहना होती है, आचार्य के धर्मादेशादि कार्योंसे किसी वस्तुकी चाहना नहीं है । वह सदा निस्पृह आत्म ध्यान में मुनित्रत् लीन है । शङ्काकार- ननु नेहा विना कर्म कर्म नेहां विना कचित् । तस्मान्नानीहितं कर्म स्यादक्षार्थस्तु वा न वा ॥ ७०६ ॥ अर्थ-विना क्रियाके इच्छा नहीं हो सकती है और विना इच्छाके क्रिया नहीं हो सकती है यह सर्वत्र नियम है । इसलिये विना इच्छाके कोई क्रिया नहीं हो सकती है, चाहे
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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