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________________ अध्याय । सुबोधिनी टीका । इसमें हेतुहेतुस्तत्रोदिता नाना भावांशैः स्पर्धकाः क्षणम्। धर्मादेशोपदेशादिहेतुर्नात्र वहिः क्वचित् ॥ ७०० ॥ अर्थ-ऊपर कही हुई विशुद्धि कभी उत्कृष्टतासे मध्यम अथवा जघन्य क्यों हो जाती है ? इसका कारण यही है कि वहां पर अनेक प्रकार भावोंमें तरतमता करनेवाले कषायके स्पर्धक प्रतिक्षण उदित होते रहते हैं, विशुद्धिकी तरतमतामें धर्मका उपदेश तथा धर्मका आदेशबाह्य कारण हेतु नहीं कहा जा सक्ता है। भावार्थ-आचार्य जो धर्मका उपदेश और आदेश करते हैं वह उनकी विशद्धिमें हीनताका कारण नहीं है। क्योंकि उसके करनेमें आचार्यके थोड़ा भी प्रमाद नहीं है, विशुद्धिमें हीनताका कारण केवल संन्वलन कषायके स्पर्धकोंका उदय है जो लोग यह समझते हैं कि मुनियोंका शासन करनेमें आचार्यके चारित्रमें अवश्य शिथिलता आ जाती है, ऐसा समझना केवल भूल भरा है। आचार्योका शासन सकषाय नहीं है, किन्तु निकषाय धार्मिक शसान है इसलिये वह कभी दोषोत्पादक नहीं कहा जा सक्ता है। परिपाट्यानया योज्याः पाठकाः साधवश्च ये। न विशेषो यतस्तेषां न्यायाच्छेषोऽविशेषभाक् ॥७०१॥ अर्थ-इसी ऊपर कही हुई परिपाटी ( पद्धति-क्रम ) से उपाध्याय और साधुओंकी व्यवस्थाका परिज्ञान करना चाहिये । क्योंकि उनमें भी आचार्यसे कोई विशेषता नहीं रह जाती है। तीनों ही समान हैं। बाह्य कारण पर विचार ।नोयं धर्मोपदेशादि कर्म तत्कारणं वहिः। हेतोरभ्यन्तरस्थापि बाह्य हेतुर्वहिः कचित् ॥ ७०२॥ अर्थ-यदि कोई यह कहै कि आचार्यकी विशेषतामें बाह्य क्रियायें-धर्मका उपदेश तथा आदेश भी कारण हैं, क्योंकि अभ्यन्तर हेतुका भी कहीं पर बाह्य कर्म बाह्य हेतु होताही है ? अर्थात् कर्मोदयरूप अभ्यन्तर कारणमें धर्मोपदेशादि क्रियाको भी कारण मानना चाहिये। आचार्य कहते हैं कि ऐसी तर्कमा नहीं करना चाहिये । क्योंकि ।नैवमर्थाद्यतः सर्व वस्त्वकिञ्चित्करं वहिः। तत्पदं फलवन्मोहादिच्छतोऽर्थान्तरं परम् ॥ ७०३ ॥ अर्थ-ऊपर जो तर्कणा की गई है वह ठीक नहीं है क्योंकि बाह्य जितनी भी वस्तु है सभी अकिंचित्कर (कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं.) है, हां यदि कोई मोहके वशीभूत होकर उ० २३
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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