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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwww अध्याय। सुबोधिनी टीका। [१४७ भोगोंकी अभिलाषाका चिन्ह है । क्योंकि इन्द्रियोंके अरुचिकर विषयों में दुःख प्रकट करनेसे अपने अभीष्ट पदार्थों में राग अवश्य होगा । रागद्वेष दोनों सापेक्ष हैंतद्यथा न रतिः पक्षे विपक्षेप्यरतिं विना । नारतिर्वा स्वपक्षेपि तद्विपक्षे रतिं विना ॥ ५४० ॥ अर्थ-विपक्षमें विना द्वेष हुए स्व-पक्षमें राग नहीं होता है और विपक्षमें विना राग हुए स्वपक्षमें द्वेष नहीं होता है। भावार्थ-राग और द्वेष, दोनों ही सापेक्ष हैं । एक वस्तुमें जब राग है तो दूसरीमें द्वेष अवश्य होगा अथवा दूसरीमें जब राग है तब पहलीमें द्वेष अवश्य होगा। रागद्वेष दोनों ही सहभावी हैं । इसी प्रकार इन्द्रियोंके किसी विषयमें द्वेष करनसे किसीमें राग अवश्य होगा । ___सहयोगिताका दृष्टान्तशीतद्वेषी यथा कश्चित् उष्णस्पर्श समीहते। नेच्छेदनुष्णसंस्पर्शमुष्णस्पाभिलाषुकः ॥ ५५० ॥ अर्थ-जैसे कोई शीतसे द्वेष करनेवाला है तो वह उष्णस्पर्शको चाहता है । जो उष्णस्पर्शकी अभिलाषा रखता है वह शीतस्पर्शको नहीं चाहता ! कांक्षाका स्वामी-- यस्यास्ति कांक्षितो भावो नूनं मिथ्यादृगस्ति सः। यस्य नास्ति स सद्दृष्टियुक्तिस्वानुभवागमात् ।। ५५१ ॥ अर्थ-जिसके कांक्षित ( भोगाभिलाषा ) भाव है वह नियमसे मिथ्यादृष्टी है। जिसके वह भाव नहीं है वह सम्यग्दृष्टी है । यह बात स्वानुभव, युक्ति और आगम तीनोंसे सिद्ध है। मिथ्यादृष्टीकी भावनाआस्तामिष्टार्थसंयोगोऽमुत्रभोगाभिलाषतः । स्वार्थसाथैकसंसिद्धि ने स्थान्नामैहिकात्परम् ॥ ५५२ ॥ अर्थ-परलोकमें भोगोंकी अभिलाषासे इष्ट पदार्थों का संयोग मिले यह भावना तो मिथ्यादृप्टिके लगी ही रहती है परंतु वह यह भी समझता है कि अपन समग्र अभीष्टोंकी सिद्धि इसलोकके सिवा कहीं नहीं है अर्थात् जो कुछ सुख सामग्री है वह यही ( सांसारिक ) है, इससे बढ़कर और कहीं नहीं है। निःसारं प्रस्फुरत्येष मिथ्याकर्मेकपाकतः । जन्नोन्मत्तवच्चापि वार्धतीनर अचान ।। ५२३ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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