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________________ पञ्चाध्यायी। [दूसरा आकस्मिक-भयअकस्माजातमित्युच्चेराकस्मिकभयं स्मृतम् । तद्यथा विद्युदादीनां पातात्पातोऽसुधारिणाम् ॥ ५४३ ॥ अर्थ-जो भय अकस्मात् (अचानक) होजाता है उसे आकस्मिक भय कहते हैं। वह विजली आदिके गिरनेसे प्राणियोंका नाश होना आदि रूपसे होता है। भीतिर्भूयाद्यथा सौस्थ्यं माभूद्दौस्थ्यं कदापि मे । इत्येवं मानसी चिन्ता पर्याकुलितचेतसा ॥ ५४४ ॥ अर्थ-आकस्मिक भय इस प्रकार होता है कि सदा मैं स्वस्थ बना रहूं, मुझे अस्वस्थता कभी न हो । इस प्रकार आकुल चित्तवाला मानसिक चिन्तासे पीडित रहता है। इसका स्वामीअर्थादाकस्मिकभ्रान्तिरस्ति मिथ्यात्त्वशालिनः । कुतो मोक्षोऽस्य तद्भीतनिर्भीकैकपदच्युतेः॥६४५ ।। अर्थ—आकस्मिक भय मिथ्यादृष्टीको ही होता है क्योंकि वह निर्भीक स्थानसे गिरा हुआ है और सदा भयभीत रहता है । फिर भला उसे मोक्ष कहांसे होसक्ती है । निर्भीकैकपदो जीवो स्यादनन्तोप्यनादिसात्। . नास्ति चाकस्मिकं तत्र कुतस्तङ्गीस्तमिच्छतः ॥ ५४६ ।। अर्थ-जीव सदा निर्भीक स्थानवाला है, अनन्त है, और अनादि भी है। उस निर्भीकस्थानको चाहनेवाले जीवको आकस्मिक भय कभी नहीं होता ? क्योंकि अनादि अनन्त जीवमें आकस्मिक घटना हो ही क्या सकती है ? निःकांक्षित अंग-- कांक्षा भोगाभिलाषः स्यात्कृतेऽमुष्य क्रियासु वा। कर्मणि तत्फले सात्म्यमन्यदृष्टिप्रशंसनम् ॥ ५४७ ॥ अर्थ-जो काम किये जाते हैं उनसे पर लोकके लिये भोगोंकी चाहना करना इसीका नाम कांक्षा है । अथवा कर्म और कर्मके फलमें आत्मीय-भाव रखना अथवा मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा करना आदि सब कांक्षा कहलाती है। कांक्षाका चिन्हहृषीकारुचितेषूच्चैरुद्धगो विषयेषु यः । स स्याद्भोगाभिलाषस्य लिंग स्वेधार्थरञ्जनात् ॥५४८ ॥ अर्थ-जो इन्द्रियोंको रुचिकर विषय नहीं हैं, उनमें बहुत दुःख करना, बस यही
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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