________________
अध्याय। सुबोधिनी टीका ।
[ १०५ । अर्थ-यदि वह वास्तव में सोना है तो अग्निके निमित्तसे पाषाण (किट्टिकालिमा) आदि मलके दूर होने पर सोनेके पीतग्त्वादि गुणोंका नाश कभी नहीं होता !
भावार्थ-सोनेका पीला गुण नित्य है उसका नाश कभी नहीं होता। परन्तु उस सोनेमें जो मल है वह उसका निजी गुण नहीं है इसलिये वह अग्नि द्वारा दूर किया जाता है। इसी प्रकार आत्माके ज्ञान, सुख गुण हैं । वे नित्य हैं, परन्तु कर्म मल उसके निजी नहीं हैं उनका नाश होजाता है।
नैयायिक मतके अनुसार मोक्षका स्वरूप--- एकविंशतिदुःखानां मोक्षो निर्मोक्षलक्षणः ।
इत्येके तदसजविगुणानां शून्यसाधनात् ॥ ३६८॥
अर्थ-"एकविंशतिदुःखध्वंसो मोक्षः" इस गौतमसूत्रके अनुसार नैयायिक लोग कहते हैं कि ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्म आदि इक्कीस दुःखोंका नाश होना ही मोक्ष है । यह उनका कहना ठीक नहीं है ऐसे कथनसे जीवके गुणोंकी शून्यता सिद्ध होती है।
भावार्थ-नैयायिक दर्शनवाले मुक्तात्माको ज्ञान, सुखादिकसे रहित जड़वत् मानते हैं ऐसा उनका सिद्धान्त सर्वथा मिथ्या है । मोक्ष सुखका स्थान है या आत्माकी ज्ञानादिक निजी सम्पत्तिका अभाव होनेसे महा दुःखका स्थान है ? जब मोक्षमें सुख गुण ही नष्ट हो जाता है तो फिर ऐसे मोक्षका प्रयत्न क्यों किया जाता है ? इससे तो संसार ही अच्छा, जहां पर दुःख भलै ही हो परन्तु निज गुणका नाश तो नहीं होता । इसलिये नैयायिक सिद्धान्त सर्वथा मिथ्या है । कहीं आत्माके गुणोंका भी नाश होता है ? वह वास्तव में नैयायिक ( न्याय जाननेवाला ) ही नहीं है। क्योंकि वह स्वयं अपने दर्शनमें यह वात मानता है कि “ समवाय सम्बन्ध गुण गुणीमें होता है और वह नित्य होता है ।" जब वह नित्य है तव मोक्षमें गुण नाश कैसा ? क्या नैयायिक दर्शन ऐसे स्थल में स्वागम बाधित नहीं होता ? इस लिये मोक्षका लक्षण जैनसिद्धान्तानुसार “कर्मोंके सर्वथा नाशसे आत्मीक गुणोंका प्रकट होना ही मोक्ष है ” यही ठीक है।
निजगुणका विकाश दुःखका कारण नहीं हैन स्यान्निजगुणव्यक्तिरात्मनो दुःखसाधनम् ।
सुखस्य मूलतो नाशादतिदुःखानुषङ्गतः ॥ ३६९ ॥ ___ अर्थ-आत्मामें निज़ गुणोंका प्रकट होना दुःखका साधन कभी नहीं हो सक्ता । जहां पर सुखका जड़ मूलसे नाश माना जाता है, वहां अति दुःख का प्रसंग अवश्य होगा ।
भावार्थ-सुख और दुःख दोनों प्रतिपक्षी हैं। एक समयमें सुख और दुःख में से एक