SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चाध्यायी । निष्कर्ष— ततः सिद्धं गुणो ज्ञानं सौख्यं जीवस्य वा पुनः। संसारे वा प्रमुक्तौ वा गुणानामनतिक्रमात् ॥ ३६२ ॥ अर्थ — इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि ज्ञान और सुख जीवके ही गुण हैं। चाहे वह जीव संसार में हो, चाहे मुक्तिमें हो, गुणोंका उल्लंघन कहीं नहीं होता । ज्ञानसुखकी पूर्णता मुक्ति में है- किञ्च साधारणं ज्ञानं सुखं संसारपर्यये । तन्निरावरणं मुक्तौ ज्ञानं वा सुखमात्मनः ॥ २६३ ॥ अर्थ- संसार पर्याय में आत्माके साधारण ज्ञान और सुख होते हैं और मुक्ति होने पर उसी आत्मा निरावरण सुख और ज्ञान होते हैं । कमका नाश होनेसे गुण निर्मल होते हैं कर्मणां विप्रमुक्तौ तु नूनं नात्मगुणक्षतिः । प्रत्युतातीय नैर्मल्यं पङ्कापाये जलादिवत् ॥ ३६४ ॥ अर्थ — कमौके नाश होने पर निश्चयसे आत्माके गुणोंकी क्षति ( हानि ) नहीं है । उल्टी निर्मलता आती है । जिस प्रकार कीचड़के दूर होने पर जल आदिकमें निर्मलता आती है । ( कर्म आत्मा में कीचड़की तरह समझने चाहिये ) | कर्मके नाश होने से विकार भी दूर होजाता है— अस्ति कर्ममलापाये विकारक्षतिरात्मनः । विकारः कर्मजो भावः कादाचित्कः सपर्ययः ॥ ३६५ ॥ अर्थ – कर्म रूपी मलके नाश होने पर आत्मामें होने वाले विकारका नाश हो जाता है । क्योंकि विकार कर्म से होनेवाला परिणाम है । वह सदा नहीं रहता कदाचित् होता है इसलिये वह गुण नहीं है पर्याय है । गुणका नाश कभी नहीं होता नष्टे चाशुद्धपर्याये मा भूद्रान्तिर्गुणव्यये । ज्ञानानन्दत्वमस्योच्चैर्नित्यत्वात्परमात्मनि ॥ ३६६ ॥ १०४ ] [ दूसरा अर्थ - आत्माकी अशुद्ध पर्यायके नाश होने पर उसके नाशका भ्रम नहीं करना चाहिये क्योंकि ज्ञान और सुख इस आत्मा के नित्य गुण हैं, वे परमात्मामें पूर्णता से रहते हैं। दृष्टान्त दादिमलापाये यथा पावकयोगतः । पीतत्वादिगुणाभावो न स्यात्कार्तस्वरोस्ति चेत् ॥ ३३७ ॥
SR No.022393
Book TitlePanchadhyayi Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherGranthprakash Karyalay
Publication Year1918
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy