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संपइ तुम्ह जत्तस्स, दंडगपयन मणनग्गे । हययस्स ॥ दंगतिय विरय सुबह, लहु मम दिंतु मुखखयं ॥ ४१ ॥ सिरि-जिहंस मुणीसर- रज्जे सिरि-धवल चंदसी सेण ॥ गजसारेण बिहिया, एसा वित्ति अप्पहिया ॥ ४२ ॥
॥ इति श्री दमकप्रकरणं संपूर्णम् ॥
॥ अथ श्री लघु (जंबूद्वीप ) संघयण प्रारयते ॥
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नमिय जिणं सव्वन्नुं, जगपुज्जं जगगुरुं महावीरं ॥ जंबुद्दीव पयत्थे, बुच्छं सुत्ता सपरदेऊ ॥ १ ॥ खंडा 'जोय 'वासा, पव्त्रय "कूमा यतित्थ "से ॥ विजय दइ "सबिलाश्रो, पिडेसिं होइ संघयणी ॥ २ ॥ न असयं खंडणं, जरहपमाणेण भाईए लख्खे अड्वा उअसयगुणं, भरमाणं दवइ लख्खं ॥ ३ ॥ ' विग
१ अहंवेगखंडभर हे० पीठा०