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________________ ++ ++20++ S++20++6@++o ++ ++00++ S++ ++20++ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला ++23++8++23++20++ ++ ++++ ++20+-28++20++8 है होते हैं और अपने इस प्रतिभास-द्वारा ज्ञान स्वरूप आत्मामें + कोई विकार उत्पन्न नहीं करते--वह दर्पणकी तरह निर्विकार । बना रहता है, उन निर्धूत-कलिलात्मा-अपने आत्मासे राग-द्वेष काम-क्रोधादिरूप सकल पाप-मलको धोकर उसे पूर्ण निर्मल एवं । निर्विकार बनानेवाले–श्रीमान् वर्द्धमानको-भारतीविभूति अथवा आर्हन्त्य-लक्ष्मीरूप श्रीसे सम्पन्न अन्तिम जैन तीर्थंकर श्रीवीर भगवान्को-मेरा नमस्कार हो-मैं उनके गुणोत्कर्षके आगे नम्र होकर सिर झुकाता हूँ।' सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तात्मा मोक्ष-मार्गः सनातनः । आविरासीद्यतो वन्दे तमहं वीरमच्युतम् ॥ –तत्त्वार्थसूत्रे, श्रीप्रभाचन्द्रः 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप सनातन मोक्षमार्ग जिनसे-जिनके उपदेशसे-आविर्भूत हुआ-लोकमें पुनः प्रकट हुा-उन अच्युत ( अमर-अविनाशी) वीरकी मैं वन्दना करता हूँ --उन्हें अपना मार्गदर्शक आदर्श-पुरुष मानकर उनके सामने नत-मस्तक होता हूँ।' २ वीर-जिन-स्तवनकीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं त्वां वर्द्धमानं स्तुति-गोचरत्वम् ।। निनीषवः स्मो वयमद्य वीरं विशीर्ण-दोषाऽऽशय-पाश-बन्धम्॥ -युक्त्यनुशासने, श्रीसमन्तभद्रः ___हे वीर जिन ! -इस युगके अन्तिम तीर्थप्रवर्तक परमदेव । आप दोषों और दोषाऽऽशयोंके पाश-बन्धनसे विमुक्त हुए हैं++8++ ++GO++30++20++++ ++++ ++20++30++S ++ ++S++EC++++00++S++ ++ ++ ++ S++ ++ ++ ++ ++ ++ ++00++लं ++
SR No.022364
Book TitleSatsadhu Smaran Mangal Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year94
Total Pages94
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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