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________________ ११ S++ ++S++ee++00++20++S++S++ सत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ P++20++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++ है आपने अज्ञान-अदर्शन-राग-द्वेष-काम-क्रोधादि विकारों अर्थात् विभाव परिणामरूप भावकर्मों और इन दोषात्मक भावकर्मोंके संस्कारक कारणों अर्थात ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीय अन्तरायरूप द्रव्यकर्मोके जालको छिन्न-भिन्न कर स्वतन्त्रता में प्राप्त की है- आप निश्चितरूपसे ऋद्धमान ( प्रवृद्ध-प्रमाण ) हैं-आपका तत्त्वज्ञानरूप प्रमाण ( केवलज्ञान ) स्याद्वाद-नयसे * संस्कृत होने के कारण प्रवृद्ध है-सर्वोत्कृष्ट एवं अबाध्य है, और आप महती कीर्तिसे भूमण्डलपर वर्द्धमान हैं-जीवादिहै तत्त्वार्थोंका कीर्तन ( सम्यग्वर्णन ) करनेवाली युक्ति-शास्त्राऽवि: रोधिनी दिव्य-वाणीसे साक्षात् समवसरण-भूमिपर तथा परम्परा से परमागमकी विषयभूत सारी पृथ्वीपर छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, निकटवर्ती-दूरवर्ती, तत्कालीन और उत्तरकालीन सभी पर-अपर परीक्षकजनोंके मनोंको संशयादिके निरसन-द्वारा पुष्ट एवं व्याप्त ₹ करते हुए आप वृद्धि ( व्यापकता ) को प्राप्त हुए हैं-सदा सर्वत्र * और सबोंके लिये 'युक्ति-शास्त्राऽविरोधि-वाक्' के रूपमें अवस्थित हैं, यह बात परीक्षा-द्वारा सिद्ध हो चुकी है। (अतः) अब-परीहै क्षाऽवसानके समय--(अात्ममीमांसाद्वारा) युक्ति-शास्त्राऽविरोधि वाक्त्व-हेतुसे परीक्षा करके यह निर्णय कर चुकनेपर कि आप विशीर्ण-दोषाशय-पाश-बन्धत्वादि तीन असाधारण गुणों ( कर्मभेत्तृत्व, सर्वज्ञत्व, परमहितोपदेशकत्व ) से विशिष्ट हैंआपको स्तुतिगोचर-स्तुतिका विषयभूत आप्तपुरुष-मानकर, हम-परीक्षाप्रधानी मुमुक्षुजन-आपको अपनी स्तुतिका विषय छ + बनाना चाहते हैं आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त होना चाहते हैं।'* * इसके अनन्तर ही 'युक्त्यनुशासन' ग्रंथमें स्वामी समन्तभद्रने वीर&++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++30++5 ++ee++EO++26++S++OC++S++S++ ++8+100++20++ ++ ++ ++ ++ S++ ++S++OC++ S++ S++g
SR No.022364
Book TitleSatsadhu Smaran Mangal Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year94
Total Pages94
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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