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________________ सागारधर्मामृत . [४९ wwwwwwwwwvvvvvv लिये चतुर्मुख यज्ञ ही अत्यंत उत्तम है यही ऐंद्रध्वजके समान है ॥ १८ ॥ वार्ता विशुद्धवृत्या स्थात्कृष्यादीनामनुष्ठितिः। चतुर्धा वर्णिता दत्तिर्दयादानसमाऽन्वयैः ॥ अर्थ-शुद्ध आचरणपूर्वक अर्थात् अपने कुलकी उचित नीति के अनुसार खेती व्यापार आदि छह प्रकारकी आजीविका करना वार्ता कहलाती है। तथा दयादत्ति, दानदत्ति, समानदात्ति, और अन्वयदत्ति ये चार प्रकारके दान कहलाते हैं। सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्देऽभयप्रदा। त्रिशुध्द्यानुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ॥ अर्थ-अनुग्रह करनेयोग्य ऐसे दीन प्राणियोंपर कृपापूर्वक मन बचन कायसे उनका भय दूर करनेको पंडितलोग दयादत्ति कहते हैं। महातपोधनायाा प्रतिग्रहपुरःसरं । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते॥ अर्थ-उत्तम तप करनेवाले महातपस्वी मुनियोंके लिये उनका सत्कारपूर्वक पडगाहन पादप्रक्षालन पजा आदिकर जो उनके लिये आहार औषध पुस्तक पीछी कमंडलु आदि देना है उसे पात्रदान अथवा दानदत्ति कहते हैं। समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रव्रतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥ समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयाऽन्विता ॥ अर्थ-गर्भाधानादिक क्रिया, मंत्र और व्रत आदिसे जो अपने समान है तथा जो संसाररूपी समुद्रके पार :जानेके उद्योगमें लगा हुआ है ऐसे गृहस्थके लिये जो भूमि सुवर्ण आदि देना है उसे समानदात्त कहते हैं । अथवा मध्यमपात्र अर्थात् श्रावकके लिये समानबुद्धिसे श्रद्धापूर्वक रान देनेको भी समानदत्ति कहते हैं।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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