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________________ ४८ ] प्रथम अध्याय चर्या साधन इन उपायोंसे खेती व्यापार आदिमें होनेवाले पापोंको दूर करना चाहिये । इस श्लोकों चतुर्मुख यज्ञका जो सत् विशेषण दिया है उससे उसकी प्रधानता दिखलाई है क्योंकि वर्तमान समयमें कल्पवृक्षयज्ञ होना तो असंभव है इस___दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राभिर्यः प्रवर्तते । कल्पवृक्षमहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः ॥ चक्रवर्ती किमिच्छक दान देकर अर्थात् तुमको क्या चाहिये ? इसप्रकार पूछ पूछकर मागनेवालोंकी पूर्ण इच्छानुसार दान देकर जो महायज्ञ करता है जिसमें संसारके सब लोगोंकी सव आशायें पूरी हो जाती हैं उसे कल्पवृक्षयज्ञ कहते हैं । ___आष्टाह्निको मह: सार्वजनिको रूढ एव सः । महानैद्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः ॥ चौथा आष्टाह्निक यज्ञ है यह यज्ञ जगतमें प्रसिद्ध है और रूढ है अर्थात् अष्टाह्निकाके दिनोंमें जो विधिपूर्वक पूजा की जाती है उसे आष्टाह्निकयज्ञ कहते हैं। इनके सिवाय एक पांचवां ऐंद्रध्वज यज्ञ है जिसको इंद्र ही करता है। __वलिस्लपनमित्यन्यन्त्रिसंध्यासेवया समं । उक्तेष्वेव विकल्पेषु शेयमन्यच्च तादृशं ॥ ऊपर लिखी हुई पांच प्रकारकी पूजाके सिवाय बलि (भात आदि नैवेद्य चढाना ) अभिषेक, सदा तीनों समय पूजन करना तथा इनके समान और भी जो पूजाके प्रकार हैं वे सब उपर कहे हुये पांच प्रकारके भेदोंमें ही आजाते हैं । एवं विधविधानेन या महेज्या जिनेशिनां । विधिज्ञास्तामुशंतीज्यां वृत्ति प्राथमकल्पिकीं ॥ इसप्रकार विधिपूर्वक जो श्री जिनेंद्रदेवकी पूजा करता है उसे आचार्य लोग श्रावकका प्रथम कर्तव्य समझते हैं । -
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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