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________________ vvvvvvvvvvvvvvvvvvvwwww vv vvvNNNNNNNA २४ ] प्रथम अध्याय अन्याय मार्गसे केवल खाने पीनेमें उडा देता हैं उसे मूलहर कहते हैं और जो पुरुष आपको तथा अपने कुटुंब सेवक आदि लोगोंको अत्यंत दुःख देकर धन बचाता है, किसी भी कार्यमें उसे खर्च नहीं करता वह 'कदर्य ( कृपण) है । इन तीनोंमेंसे तादात्विक और मूलहरका तो सब धन खर्च हो जाता है। धन खर्च होनेपर वह धर्म और काम इन दोनों पुरुषार्थोंका सेवन नहीं कर सकता, इसलिये उसका कल्याण नहीं हो सकता। कदर्य अर्थात् कृपणका द्रव्य या तो राजा ले लेता है अथवा चोर चोरी कर ले जाते है, इसलिये उसे दोनों नहीं मिल सकता । इसलिये धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषाथोंको परस्पर बाधा रहित सेवन करना चाहिये। किसी अशुभ कर्मके उदयसे कदाचित इनमें कोई विघ्न आजाय तो जहांतक बने पहिले पहिलेके पुरुषार्थोंकी रक्षा करनी चाहिये । भावार्थ-तीनोंमें विघ्न आनेकी संभावना हो तो धर्म और अर्थकी रक्षा करना चाहिये, क्योंकि इन दोनोंकी रक्षा होनेसे कामकी सिद्धि कभी अपनेआप हो जायगी। कदाचित् इन दोनोंकी भी रक्षा न हो सके तो धर्मकी ही रक्षा करना चाहिये क्योंकि अन्य दोनों पुरुषार्थोंका मूल कारण धर्म ही है। इस आदिका पालन पोषण करे । क्योंकि इस लोकका सुख तुच्छ है इसलिये इसमें आधिक धन खर्च करना योग्य नहीं है । १ कुत्सितः अर्थः स्वामी कदर्यः । नीच मालिकं ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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