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________________ सागारधर्मामृत [२१ किया जाय कि जिससे एकके सेवन करनेसे दूसरेकी हानि न हो । इसका अभिप्राय यह है कि धर्म और अर्थका सर्वथा नाश करके विषयादिक सुखोंका अनुभव नहीं करना चाहिये, क्योंकि कामकी प्राप्ति अर्थ अर्थात् धनसे होती है और अर्थकी प्राप्ति धर्मसे होती है, इसलिये जैसे बीजके नाश होनेपर वृक्ष नहीं उग सकता उसीतरह धर्म और अर्थके नाश होनेपर कामकी प्राप्ति भी नहीं हो सकती। जो पुरुष केवल कामसेवनमें ही लगा रहता है वह अवश्य ही धर्मसे भ्रष्ट होता है, उसके सब धनका भी नाश हो जाता है और उसके शरीरकी भी बडी भारी हानि होती है। इसलिये धर्म अर्थकी रक्षा करतेहुये कामका सेवन करना उचित है । इसीतरह जो पुरुष धर्म और कामका उल्लंघन कर अर्थात् नाश कर केवल धन कमानेमें लगा रहता है वह भी मूर्ख ही है, क्योंकि हमारा कमाया हुआ धन यदि धर्मकार्यमें खर्च न होगा श्वसन्नपि न जीवति ॥ अर्थ-धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरूषार्थोंके सेवन किये बिना ही जिसके दिन आत और चले जाते हैं वह पुरूष लुहारकी भातीके समान श्वास लेता हुआ भी मरे हूयेके समान है। ३. त्रिवर्ग संसाधनमंतरेण पशोरिवायुर्विफलं नरस्य । तत्रापि धर्म प्रवरं वदंति न तं विना यद्भवतोर्थकामौ ॥ अर्थ- त्रिवर्ग सेवन किये विना मनुष्यकी आयु पशुके समान व्यर्थ है । उस त्रिवर्ग में भी आचार्योंने धर्मको ही मुख्य बतलाया है क्योंकि धर्म के विना अर्थ और कामकी प्राप्ति नहीं होती।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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