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________________ MANJRivvvvvvvvvvvAAMR.. १८ ] प्रथम अध्याय सकता है, ' न्यायसे कमाया हुआ धन ही सत्पात्रको देने और दुखी जीवों के दुख दूर करनेमें काम आता है और ऐसा करनेसे यह जीव परलोकमें भी सुखी होता है । विना धनके गृहस्थधर्म चल नहीं सकता इसलिये ही ग्रंथकारने श्लोकमें सबसे पहिले इसे लिखा है । __ सदाचार, सुजनता, उदारता,चतुरता,स्थिरता और प्रियवचन १-यांति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यंचोपि सहायतां। अपस्थानं तु गच्छंतं सोदरोऽपि विमुंचति॥ अर्थ-न्यायमार्गमें चलते हुये पुरुषको पशु पक्षी भी सहायता देते हैं और अन्याय मार्गमें चलनेवालेको सगा भाई भी छोड़ देता है। २ वर्तमानमें लोगोंके पास हजारों लाखों करोडों रुपये होते हुये भी धर्मकार्यों में खर्च करनेके लिये उनका जी नहीं चाहता, कोई कोई लज्जासे अथवा केवल अभिमान या यशके लिये थोडाबहुत काम करते हैं परंतु वे इसतरह वा ऐसे काम करते हैं कि जिसमें उनका रुपया तो आधिक लग जाताहै और फल बहुत थोडा होता है । इसका मुख्य कारण यही है कि ऐसे लोगोंका धन न्यायसे कमाया हुआ नहीं है । यह नीति है कि जिस रीतिसे धन कमाया जाता है प्रायः उसी रीतिसे वह खर्च होता है । यदि न्यायसे कमाया जायगा तो अवश्यही धर्मकार्यों में लगेगा; यदि अन्यायसे कमाया हुआ होगा तो वह अवश्यही अधर्म कार्योंमें लगेगा, अथवा जिसतिसतरह खर्च हो जायगा । इसलिये कहना चाहिये कि धर्मोन्नति, जात्युन्नति, विद्योन्नति आदि करनेके लिये मुख्य कारण न्यायस धन कमाना है। ३ लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः। कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं सदाचारः । प्रकीर्तितः॥ अर्थ-लोकापवादसे भय होना, दीन पुरुषों के उद्धार करनेमें
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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