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________________ १७३ ८५ विषय । (३४) पृष्ठ । श्लोक । पाक्षिक श्रावकको तपश्चरण करनेकी विशेष विधि १६३ ७८ व्रतोंका ग्रहण, रक्षण, और भंग होनेपर प्रायश्चित लेकर फिर स्थापन करनेकी विधि १६४ ७९ व्रतका लक्षण १६५ ८० जीवोंकी रक्षा करनेकी विधि १६५ ८१ संकल्पी हिंसाके त्यागका उपदेश १६६ ८२ घातक और दुखी सुखी जीवोंके घात करनेका निषेध १६८ ८३ सम्यग्दर्शनको विशुद्ध रखने और लोगोंका चित्त संतुष्ट करनेके लिये पाक्षिक श्रावकका कर्तव्य १७२ ८४ कीर्ति फैलानेकी आवश्यकता कीर्ति संपादन करनेका उपाय १७३ ८६ पाक्षिक श्रावकको प्रतिमा धारणकर मुनिव्रत धारण करनेका उपदेश १७४ ८७ तीसरा अध्याय । नैष्ठिकका लक्षण १७६ १ ग्यारह प्रतिमाओंके नाम और उनकी गृहस्थ, ब्रह्मचारी और भिक्षुक तथा जघन्य मध्यम उत्तम संज्ञा १८१ २-३ कैसा नैष्ठिक पाक्षिक कहलाता है १८२ ४ किसी प्रतिमामें अतिचार लगानेसे द्रव्यकी अपेक्षा वही और भावकी अपेक्षा उससे पहिली प्रतिमा होनेका निरूपण १८३ ५ फिर इसीका समर्थन १८४ ६ दर्शनिक प्रतिमाका स्वरूप १८५ ७-८ मद्य आदिके व्यापारका निषेध १८९ ९
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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