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________________ nnnnnnnnnnnnnnnn 312] चौथा अध्याय आगे-इसप्रकार वर्णन किये हुये पांचों अणुव्रतोंको निरतिचार पालन करनेवाले श्रावकको निर्मल सातों शील पालन करनेकेलिये उत्तेजित करनेको उसका प्रभाव वर्णन करते हैं पंचाप्येव मणुव्रतानि समतापीयूषपानोन्मुखे सामान्येतरभावनाभिरमलीकृत्यार्पितान्यात्मनि / त्रातुं निर्मलशीलसप्तकमिदं ये पालयंत्यादरात् ते सन्यासविधिप्रमुक्ततनवः सौर्वीः श्रियो भुंजते // 66 / / अर्थ-जो भव्य इसप्रकार मैत्री प्रमोद आदि सामान्य भावना और प्रत्येक व्रतकी पांच पांच विशेष भावनाओंसे अतिचारोंको निवारण कर समतारूप अमृतके पान करने के लिये सन्मुख ऐसे आत्मामें परिणत कियेगये पांचों अणुव्रतों अथवा एक दो चार आदि अणुव्रतोंकी रक्षा करनेकेलिये आगे कहेहुये सातों शीलोंको बड़े आदरसे पालन करते हैं वे निर्मल अणुव्रत और शीलवत पालन करनेवाले जीव इस ग्रंथके अंतिम अध्यायमें कही हुई समाधिमरणकी विधिसे शरीर छोडकर सौधर्मादि सोलह स्वर्गों में प्राप्त होनेवाली अतुल संपदाका अनुभव करते हैं। ऊपर जो "भावनाओंसे अतिचारोंको निवारण कर" ऐसा लिखा है उससे ग्रंथकारने व्रतोंके उद्योतन करने की सूचना दी है तथा "आत्मामें परिणत कियेगये” यह जो लिखा है उससे ग्रंथकारने व्रतोंके उद्यापन करनेको प्रगट किया है // 66 // इसप्रकार पंडितप्रवर आशाधर विरा त स्वोपज्ञ (निज-विरचित ) सागरधर्मामृतको प्रगट करनेवाली भव्यकुमुदचंद्रिका टकिाके अनुसार नवीन हिंदी भाषानुवादमें धर्मामृतका तेरहवां और सागरधर्मामृतका चौथा अध्याय समाप्त हुआ /
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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