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________________ ३०२] चौथा अध्याय हों ऐसे बाह्य बगीचा गांव आदि तथा अंतरंग मिथ्यात्व आदि वस्तुओंमें " यह पुत्र मेरा है, यह बगीचा मेरा है, यह घर मेरा है, मैं इसका स्वामी हूं" ऐसा जो संकल्प है अर्थात् मनका अभिप्राय वा ममत्व परिणाम है उसे मूर्छा वा परिग्रह कहते हैं। उस ममत्वरूप परिणामोंके घटानेसे जो चेतन, अंचेतन अथवा मिली हुई वस्तुओंको कम करना अर्थात् उनका परिमाण कर लेना परिग्रहपरिमाण अणुव्रत है ॥५९॥ आगे-अंतरंग परिग्रहके त्याग करनेका उपाय बतलाते हैंउद्यत्क्रोधादिहास्यादिषट्कवेदत्रयात्मकं । अंतरंगं जयेत्संग प्रत्यनीकप्रयोगतः ॥ ६ ॥ अर्थ-जब क्रोधादिका उदय होता है तब उनका जीतना अत्यंत कठिन है इसलिये उदयमें आये हुये प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और स्त्रीवेद पुंवेद नपुंसकवेद संबंधी राग ये अंतरंग परिग्रह परिग्रहपरिमाणाणुव्रती श्रावकको उत्तमक्षमा आदि क्रोधादिके प्रतिकूल भावोंसे जीतने चाहिये। भावार्थ-क्षमासे क्रोध, मार्दवसे मान, आर्जवसे माया और शौचसे लोभ नीतना चाहिये । हास्य रति आदि परिग्रहोंको भी समता आदि परिणामोंसे जीतना चाहिये । अंतरंग परिग्रह चौदह हैं और यहांपर तेरह ही गीनाये हैं
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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