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________________ vvvvvvvv ३०० ] चौथा अध्याय होजाते हैं । श्री सोमदेवने कहा भी है-“ऐदं पर्यमतो मुक्त्वा भोगानाहारवद्भजेत् । देह दाहोपशांत्यर्थमभिध्यानविहानये ॥" अर्थात्-"विषयोंमें लगी हुई स्पृहाको दूर करने और शरीरका संताप शांत करनेकेलिये अत्यंत आसक्तिको छोडकर आहारके समान भोगोंका सेवन करना चाहिये, उनका सदा चितवन करते रहना सर्वथा अयोग्य है" इसलिये विटत्व स्मरतीत्राभिनिवेश और अनंगक्रीडा ये तीनों ही निषिद्ध है इनका आचरण करनेसे व्रतका भंग होता है तथा अपने किये हुये नियमका पालन होता है उसमें कुछ बाधा आती नहीं इसलिये व्रतका भंग नहीं भी होता इसप्रकार भंग अभंग होनेसे ये तीनों ही अतिचार गिने जाते हैं। ___अथवा वेश्यादिके साथ विटत्व आदि करना भी अतिचार है । क्योंकि स्वदारसंतोषी समझता है कि मैंने वेश्यादिमें मैथुन करनेका ही त्याग किया है और इसीलिये वह केवल मैथुनमात्रका त्याग करता है विटत्व आदिका नहीं । इसीप्रकार परस्त्रीत्यागी भी ऐसा ही समझता है कि मैंने परस्त्रीमें मैथुनमात्रका त्याग किया है उनके साथ अशिष्ट वचनोंका प्रयोग करना अथवा आलिंगन आदि करनेका त्याग नहीं किया है । इसप्रकार स्वदारसंतोषी और परस्त्रीत्यागी इन दोनों के व्रत पालन करनेकी अपेक्षा होनेसे व्रतका भंग नहीं होता
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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