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________________ २९८] चौथा अध्याय पतिके आधीन हो जायगी और परतंत्र होनेसे फिर उससे कोई | विरुद्ध कार्य नहीं हो सकेगा। इसकारण पुत्रीका विवाह करना आवश्यक है । तथा इसी न्यायसे अर्थात् इन्हीं सब कारणोंसे पुत्रका विवाह करदेना भी आवश्यक ही है। यहांपर इतना और समझलेना चाहिये कि यदि अपने कुटुंबको समालनेवाला कोई भाई आदि हो तो अपनी संतानके विवाह न करनेका नियम करलेना ही अच्छा है। स्वदारसंतोषव्रतको धारण करनेवाला श्रावक अपनी स्त्रीसे पूर्ण संतुष्ट न होकर यदि वह अपना दूसरा विवाह करे तो भी परविवाहकरण अतिचार लगता है। क्योंकि उसने दूसरेकी कन्याका विवाह अपने साथ किया है । परकीय कन्याका विवाह करनेसे व्रतभंग और अपना विवाह करनेसे व्रतका अभंग इसपकार भंग अभंग दोनों होनेसे यह अपना दूसरा विवाह करना भी अतिचार होता है। विटत्व-भंडरूप वचन कहने और रागरूप शरीरकी चेष्टा करनेको विटत्व कहते हैं। स्मरतीवाभिनिवेश-कामसेवनमें अत्यंत आसक्त होना अर्थात् अन्य समस्त व्यापार छोडकर केवल स्त्रीमें आसक्त होना स्मरतीनाभिनिवेश है। इसके निमित्तसे पुरुष चिड़ियाके | समान वारवार अपनी स्त्रीको आलिंगन करता है तथा और
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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