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________________ सागारधर्मामृत [२९७ | करानेका कारण होनेसे पहिल ही से छूट जाता है अर्थात् व्रत लेतेसमय ही उसका त्याग हो जाता है । इसकारण अन्य पुत्र पुत्रियों के विवाह करनेसे व्रतका भंग होता है, परंतु वे दोनों ही व्रती ऐसी कल्पना करके विवाह कराते हैं कि हम केवल इनका विवाह कराते हैं कुछ मैथुन नहीं कराते इसकारण व्रतका पालन भी होता है। इसप्रकार पर विवाह करणसे व्रतका पालन और भंग दोनों ही होनेसे भंगाभंगरूप अतिचार होता है । जो सम्यग्दृष्टी पुरुष अव्युत्पन्न अर्थात् अल्पज्ञानी होता है जिसको हितोपदेश नहीं मिलने पाता उसको कन्यादानके फलकी इच्छा होती है। तथा जो मिथ्यादृष्टी भद्र (होनहार सम्यग्दृष्टी) होता है और अपना कल्याण करनेकेलिये जब व्रतोंको स्वीकार करता है तब उसके ऐसी इच्छा | उत्पन्न हो सकती है। यहांपर एक शंका उत्पन्न होती है और वह यह है कि व्रती श्रावकको जिसप्रकार दूसरेके पुत्र पुत्रियोंका विवाह कर | देना अतिचार होता है उसीप्रकार अपने पुत्र पुत्रियोंके विवाह करनेमें भी उसको अतिचार लगना चाहिये । परंतु इसका समाधान यह है कि यदि वह श्रावक अपनी पुत्रीका विवाह न करेगा तो उसकी पुत्री स्वच्छंदचारिणी हो जायगी और | उसके स्वच्छंद होनेसे कुल, शास्त्र और लोक तीनोंमें विरोध | आवेगा । यदि उसका विवाह करदिया जायगा तो वह अपने
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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